नई दिल्ली,
पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के लिए अरविंद केजरीवाल से पार पाना आसान नहीं है। दिल्ली में होने जा रही चुनावी जंग एक बार फिर साबित कर देगी कि मोदी का जादू घट रहा है, भले ही उनके हिन्दुत्व के एजेंडा को हिंसक तरीकों से लागू किया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि केजरीवाल अब पांच साल पहले जैसा ब्रांड नहीं हैं। तब, भले ही वह एक राजनैतिक नौसिखिये थे, लेकिन ऐसे राजनेता थे, जिन पर जनता को विश्वास था, क्योंकि वह घुटे हुए राजनेता नहीं थे।
उन्हें ऐसे शख्स के रूप में देखा जा रहा था, जो राजनीति में राजनीति करने के लिए नहीं, राजनीति को बदलने के लिए आया है। जनता को अब भी उन पर विश्वास है – लेकिन अब उन पर राजनेता के तौर विश्वास किया जा रहा है। अरविंद केजरीवाल की पिछले पांच साल की कहानी एक ‘आदर्शवादी’ बागी से ‘व्यावहारिक’ राजनेता बनने की कहानी है।
अगर कोई सोचता है कि मतदाताओं के बीच अरविंद केजरीवाल का चुम्बकीय जादू खो गया है, तो वह ख्वाबों की दुनिया में जी रहा है। संभवतः केजरीवाल भले ही अखिल भारतीय स्तर पर मतदाताओं को नहीं लुभा सकते, लेकिन दिल्ली में वह अब भी अव्वल हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले दो साल में आम आदमी पार्टी ने जितने भी चुनाव उनके नेतृत्व में लड़े हैं, उनमें प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा।
उनकी पार्टी हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में एक फीसदी वोट भी हासिल नहीं कर पाई। दिल्ली में लोकसभा चुनाव में AAP की करारी हार हुई – डाले गए कुल मतों के लिहाज़ से AAP तीसरे स्थान की पार्टी रही। यहां तक कि कांग्रेस को भी AAP से ज़्यादा वोट हासिल हुए। वर्ष 2017 में दिल्ली नगर निगमों के चुनाव में भी AAP बुरी तरह हारी, लेकिन दिल्ली में विधानसभा चुनाव कतई अलग बात है।
तीन चीज़ें हैं, जो AAP का भविष्य तय करेंगी…
एक, बिल्कुल मोदी की ही तरह, दिल्ली में केजरीवाल के सामने कोई नहीं ठहरता। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी को बाकी सभी नेताओं की तुलना में कहीं ऊपर देखा गया। TINA फैक्टर (देयर इज़ नो ऑल्टरनेटिव – कोई विकल्प नहीं) ने उनके पक्ष में काम किया। इसी तरह, दिल्ली में TINA फैक्टर केजरीवाल के लिए काम कर रहा है। BJP नेतृत्वविहीन है। मनोज तिवारी, विजय गोयल, हर्षवर्धन तथा अन्य का केजरीवाल से कोई मुकाबला नहीं।
उनके पास न आकर्षण है, न कद, न ही सामाजिक आधार। हो सकता है, दिल्ली में प्रभावशाली और उच्च-मध्यम वर्ग का केदरीवाल से मोहभंग हुआ हो, लेकिन निम्न-मध्यम वर्ग, गरीबों और हाशिये पर रहने वालों के चहेते भी वह आज भी हैं। BJP के नेताओं से उलट, वह हर वक्त काम करते रहते हैं, और अप्रैल, 2017 में निगम चुनाव में हार के बाद वह दिल्ली के कोने-कोने का दौरा करते रहे हैं, रोज़ाना बड़ी-छोटी रैलियों को संबोधित करते रहे हैं। उन्होंने अपनी पकड़ फिर बना ली है।
दो, दिल्ली में कांग्रेस मृत्युशैया पर है। लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने खोई ज़मीन वापस पाने के आसार दिखाए थे, और 22 फीसदी वोटों के साथ BJP के बाद दूसरे स्थान पर रही थी। ऐसा लगा, जैसे मुस्लिमों ने AAP का साथ छोड़ दिया है, और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर AAP की अस्पष्ट नीतियों के चलते वे कांग्रेस की ओर लौट रहे हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस फिर गुटबाज़ी और अंदरूनी कलह की ओर चली गई।
इसके बाद शीला दीक्षित के देहावसान और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे ने उन पर बहुत बुरा असर किया। नेता के अभाव में कांग्रेस कई महीनों तक दिशाहीन रही, और पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल डूब गया। दिल्ली में AAP और कांग्रेस का सामाजिक आधार एक ही है। कांग्रेस का दोबारा उबर आना AAP के लिए संकट होगा, लेकिन केजरीवाल के लिए मनोबल-विहीन कांग्रेस वरदान सरीखी है। अब, BJP-विरोधी वोटों के विभाजन की दूर-दूर तक कोई संभावना नज़र नहीं आती।
तीन, अपनी सभी कमज़ोरियों के बावजूद AAP सरकार काम करती हुई और अपने वादे पूरी करती हुई दिख रही है। चुनाव से पहले AAP सरकार ने जनता को कई ‘मुफ्त’ तोहफे दिए, लेकिन उनके पक्ष में माहौल को बनाने का काम किया है मुफ्त बिजली और आधी कीमत पर मिलने वाले पानी ने। इससे निम्न-मध्यम और गरीब वर्ग को सीधे लाभ पहुंचा है। AAP का दावा है कि इस योजना से दिल्ली के 80 फीसदी मतदाताओं को फायदा मिला, और यह हकीकत है। स्वास्थ्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कामों की चर्चा होती ही रहती है, जिससे उनके आलोचक भी प्रभावित हैं। सरकारी स्कूलों के कायापलट ने तो लोगों की समझ में AAP को बहुत ऊपर उठा दिया है। इससे पार्टी के लिए सकारात्मकता पैदा हो गई है।
AAP के पक्ष में काम करने वाला चौथा फैक्टर केजरीवाल की चुप्पी है। वर्ष 2015 में शानदार जीत के बाद केजरीवाल को बेहद आक्रामक रूप में देखा गया। वह हर मुद्दे पर मोदी से बात करते नज़र आते थे। मोदी और उनकी टीम ने बेहद कामयाबी से केजरीवाल के बारे में सोच पैदा कर दी कि वह प्रशासन में रुचि नहीं रखते और उनका सारा ध्यान लड़ाई के मौके ढूंढने पर ही रहता है। प्रशासनिक तजुर्बे और राजनैतिक कौशल की कमी के चलते केजरीवाल ने समूचे राजनेता वर्ग के साथ-साथ नौकरशाही से भी दुश्मनी मोल ले ली।
जो मध्यम वर्ग उम्मीद लगाए उनकी ओर ताक रहा था, उनके तौर-तरीकों, हावभाव और गाली-गलौज से उसका भी मोहभंग हो गया। यही वह समय था, जब केजरीवाल को उनके शुभचिंतकों ने ज़्यादा नहीं बोलने, ट्विटर पर ज़्यादा नहीं लिखने, और नकारात्मक तरीके से नौकरशाहों से नहीं भिड़ने की सलाह दी – लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी। यह वही समय था, जब उम्मीद की जा रही थी कि पंजाब में AAP सरकार बना लेगी – लेकिन उन्हें करारी हार झेलनी पड़ी।
यह केजरीवाल के लिए बड़ा झटका था, जिसने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया। उन्हें गलतियों का एहसास हुआ, और उन्होंने खुद को नए रूप में ढाल दिया। वर्ष 2020 का चुप रहने वाला केजरीवाल वर्ष 2015 के गरजते-बरसते बाघ की तुलना में कहीं ज़्यादा खतरनाक है। अब मोदी और शाह की जोड़ी को देखभालकर कदम रखने होंगे। दिल्ली में हार या जीत के अंतर से मोदी सरकार नहीं गिरने वाली, लेकिन इससे समूचे देश में एक संकेत तो जाएगा ही।