महाराष्ट्र
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने शिवसेना के मुखपत्र सामना को इंटरव्यू दिया है और उसमें उन्होंने बीजेपी (BJP) पर जमकर निशाना साधा है। उद्धव ठाकरे ने कहा है कि किसी को टिप्पणी करनी है तो खुशी से करे। मैं अब परवाह नहीं करता। पार्टी में फूट डालकर लाए गए लोग तुम्हें चलते हैं फिर उस पार्टी के साथ हाथ मिलाया तो क्या फर्क पड़ता है?
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा कि महाराष्ट्र की राजनीति के भूकंप का झटका दिल्ली तक लगा और देश को नई दिशा मिली। परदे के पीछे और सामने निश्चित तौर पर क्या हुआ? इस पर उद्धव ठाकरे ने बेबाकी से कहा, राजनीतिक शतरंज पर कौन सा प्यादा कैसे हटाया जाता है।
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उन्होंने कहा कि मैंने क्या मांगा था भाजपा (BJP) से? जो तय था वही न! मैंने उनसे चांद-तारे मांगे थे क्या? उद्धव ठाकरे ने कहा, BJP अगर दिए गए वादों को निभाती तो मैं मुख्यमंत्री पद पर दिखाई नहीं देता। कोई शिवसैनिक वहां पर विराजमान हुआ होता, लेकिन ये उस दिशा में उठाया गया पहला कदम है। सरकार स्थापना के घटनाक्रम से लेकर विवादित नागरिकता संशोधन कानून तक, राहुल गांधी से अजीत पवार तक, कई सवालों का जवाब उद्धव ठाकरे ने दिए।
उद्धव, आप झटके से उबर गए हैं क्या?
– झटका? कैसा झटका? मुझे लगा ऐसा लगता है क्या?
नहीं, ऐसा मुझे भी नहीं लगता, लेकिन…
– नहीं ही लगेगा। इसका कारण ये है कि मैं शिवसेना प्रमुख का पुत्र हूं। झटका देने का प्रयास कइयों ने करके देखा है। लेकिन किसी को भी वो जमा नहीं। परंतु शिवसेना प्रमुख ने जो झटका कइयों को दिया है, उससे वे लोग अभी भी उबरते हुए नहीं दिखाई दे रहे। ये क्षेत्र ऐसा है कि इसमें झटका या धक्का-मुक्की मानकर चलना पड़ता है।
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इससे पहले आपने शुरुआत करते हुए शतरंज का उल्लेख किया। शतरंज बुद्धि से खेला जानेवाला खेल निश्चित तौर पर है लेकिन उसमें विभिन्न प्यादे उसे क्या कहते हैं… प्यादा, हाथी, घोड़ा, राजा, वजीर, ऊंट हर एक की चाल हम ध्यान में रखें तो शतरंज खेलना कठिन है, ऐसा मुझे नहीं लगता।
उद्धव जी, शतरंज एक प्रतिष्ठित खेल है। सही मायने में वहां बुद्धि का इस्तेमाल करना होता है।
– निश्चित ही। परंतु बुद्धि अगर हो तो न।
लेकिन महाराष्ट्र में इस शतरंज के खेल में षड्यंत्र और चालबाजी का स्वरूप आ गया है। उसे षड्यंत्र कहें या चालबाजी कहें, आपने उसे नाकाम कर दिया। ये झटका कइयों को लगा। ये मेरा कहने का तात्पर्य है। आपने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली यही बड़ा झटका था, ऐसा नहीं लगता क्या?
– नहीं, एक बात ध्यान में रखो। मुख्यमंत्री पद को स्वीकारना न ही मेरे लिए झटका था और न ही मेरा सपना था। अत्यंत ईमानदारी से मैं ये कबूल करता हूं कि मैं शिवसेना प्रमुख का एक स्वप्न- फिर उसमें ‘सामना’ का योगदान होगा, शिवसेना का सफर होगा और मुझ तक सीमित कहें तो मैं मतलब स्वयं उद्धव द्वारा उनके पिता मतलब बालासाहेब को दिया गया वचन! इस वचनपूर्ति के लिए किसी भी स्तर तक जाने की मेरी तैयारी थी।
उससे भी आगे जाकर एक बात मैं स्पष्ट करता हूं कि मेरा मुख्यमंत्री पद वचनपूर्ति नहीं बल्कि वचनपूर्ति की दिशा में उठाया गया एक कदम है। उस कदम को उस दिशा की ओर बढ़ाने के लिए मैंने मन से किसी भी स्तर तक जाने का तय किया था। अपने पिता को दिए गए वचन को पूरा करना ही है और मैं वो करूंगा ही।
लेकिन इस झटके से महाराष्ट्र उबरा है क्या?
– झटके कई प्रकार के होते हैं। लोगों को ये समझा है कि नहीं। पसंद आया है कि नहीं, ये महत्वपूर्ण हिस्सा है। मैंने कई बार इस मामले पर बोला है और जनता भी इसे पूरी तरह से समझी है। वचन देने और निभाने में फर्क है। वचन भंग होने पर स्वाभाविक ही है कि दुख है, गुस्सा है। उन्होंने किसके लिए ये किया? क्यों वचन दिया और क्यों मुकर गए? फिर उनके द्वारा इस तरह से वचन से मुकरने के बाद मेरे पास दूसरा विकल्प नहीं था।
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परंतु इस झटके से आपके 25 वर्षों की साथी रही भाजपा उबरी क्या?
– मुझे पता नहीं। लेकिन मुझे उनसे ऐसा कहना है कि उन्होंने वचन निभाया होता तो क्या हुआ होता। ऐसा मैंने क्या बड़ा मांगा था? आसमान के चांद-तारे मांगे थे क्या? लोकसभा चुनाव से पहले जो हमारे बीच तय हुआ था उतना ही मांगा था।
मतलब उन्होंने आपको झटका देने का प्रयास किया और आपने उल्टा झटका दिया, इसे ऐसा ही कहना पड़ेगा…
– मैंने पहले ही कहा था न कि इस क्षेत्र में झटका और धक्का-मुक्की आ गई है।
धक्का-मुक्की ही हुई। महाराष्ट्र की राजनीति में इस तरह की धक्का-मुक्की कभी नहीं हुई थी?
– परंतु इसमें धक्का देना और मुक्की देना ये दोनों बातें आईं।
धक्का किसने खाया और मुक्की किसको मिली?
– महाराष्ट्र और देश देख रहा है। मुझे ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
आपने वचन बालासाहेब को दिया था उसकी वचनपूर्ति आपने की, ऐसा अब आपने कहा?
– नहीं। मेरा मुद्दा सही प्रकार से समझ लें। उस वचनपूर्ति की दिशा में उठाया गया वो पहला कदम है। हां, पहला कदम। यही मेरा दृष्टिकोण है।
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ऐसे कितने कदम आप उठाएंगे?
– जितना उठाना पड़ेगा, उतना उठाऊंगा। मैं शिवसेना प्रमुख के शिव सैनिक को मुख्यमंत्री पद पर बिठाऊंगा ये मेरा वचन है और उस दिशा में उठाया गया ये पहला कदम है, ऐसा मैं मानता हूं।
परंतु इसे करने के लिए आपको तत्वों और ठाकरे परिवार की परंपरा को तोड़ना पड़ा, ऐसा नहीं लगता क्या?
– हां, सही है। आप जैसा कहते हैं वैसा है। निश्चित ही है। परंतु अंतत: ऐसा था कि…शिवसेना प्रमुख ने जिंदगी में कभी भी सत्ता का कोई भी पद नहीं स्वीकारा। मेरी भी ऐसी इच्छा नहीं थी, बिल्कुल भी नहीं।
‘मातोश्री’ और शक्ति ये दो बातें हमेशा एक साथ रही हैं
लेकिन जब मुझे आभास हुआ कि जिनके साथ हम हैं अथवा थे, उनके साथ रहकर मैं अपनी वचनपूर्ति की दिशा में जा नहीं सकता और उस वचनपूर्ति के लिए यदि मुझे अलग दिशा स्वीकारनी होगी तो वैसी तैयारी होनी चाहिए उसके लिए यदि मुझे ऐसी बड़ी जिम्मेदारी स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा तो मेरे लिए लाइलाज था। वह जिम्मेदारी स्वीकार करनी ही पड़ी। BJP पर उद्धव का वार
23 जनवरी शिवसेना प्रमुख का जन्मदिन…इस बार यह अलग लगा क्या?
हां, निश्चित ही अलग लगा। बचपन से ही मैं यही सब माहौल देखते-देखते बड़ा हुआ हूं। उस दौर में शिवसेनाप्रमुख से मिलने के लिए लोग बड़ी संख्या में आते थे। उत्सुकता के साथ आते थे। एक प्यार के साथ, आत्मीयता के साथ आते थे। बाद के दौर में जब शिवसेना प्रमुख किसी से मिल नहीं सकते थे तब मात्र उनके दर्शन के लिए ‘मातोश्री’ पर होनेवाली प्रचंड भीड़ मैंने देखी है। भोर से शिवसैनिक आते थे। मुझे अभी-भी याद है डोंबिवली के वो अमोणकर थे। उनके जैसे असंख्य शिवसैनिक भोर में आते थे, भीड़ जुटी रहती थी। तब शिवसेनाप्रमुख पूरी लय में थे। वे सबसे मिलते थे।
मैंने इस बार 23 जनवरी को अलग इसलिए कहा कि आपकी वचनपूर्ति होने के बाद का यह पहला जन्मदिन था ‘मातोश्री’ पर इस बार मुख्यमंत्री रह रहे थे। इस तरह से यह अलग था क्या?
मातोश्री और शक्ति… मैं सत्ता नहीं कहता। शक्ति! ये दो बातें हमेशा ही एक साथ रही हैं, आगे भी रहेंगी। सत्ता प्राप्ति अथवा सत्ता में हमारा आना यह एक अलग तरह का अनुभव निश्चित तौर पर है और था ही। मैंने जैसा कहा ‘मातोश्री’ और शक्ति के एकत्रित होने की दो बातें हैं। इसलिए नया कुछ हुआ ऐसा मुझे नहीं लगता। क्योंकि वह भीड़, वह सब जल्लोष मैं बचपन से देखता रहा हूं। BJP पर उद्धव का वार
राज्य की सत्ता उस इमारत में आ गई।
हां, यह सत्य है…
अभी जब मैं फोन करता हूं…कई बार हमेशा की तरह तब ‘मातोश्री’ इस एक शब्द में हमें एक संतुष्टि मिल जाती थी। अब वहां से हमें सुनने को मिलता है कि मुख्यमंत्री का निवासस्थान।
यह शिवसैनिकों की उपलब्धि है। इसमें मेरा योगदान शून्य है। यह ऐश्वर्य-वैभव शिवसेनाप्रमुख के, मेरी मां के पुण्य और शिवसैनिकों के अपार प्रेम और श्रद्धा के कारण संभव हुआ, इसमें मेरा योगदान सचमुच शून्य है।
आज यदि मांसाहेब होतीं तो उन्हें कैसा लगा होता, ऐसा कभी आप सोचते हैं क्या?
मां क्यों…बालासाहेब रहे होते तो उन्हें भी लगा होता कि अरे, बाप रे! इसे यह पार लगेगा कि नहीं। मां के मामले में अपने बच्चे के प्रति ममत्ववाली भावना निश्चय ही रही होती। इसके साथ ही गर्व भी अवश्य होता। BJP पर उद्धव का वार
पार लगेगा कि नहीं? यह सवाल महाराष्ट्र में कई लोगों के मन में उठा था। आपने शिवसेनापक्षप्रमुख पद की कमान जब हाथ में ली थी तब भी यही चिंता कई लोगों को हुई थी। लेकिन आपने न सिर्फ जिम्मेदारी उठाई बल्कि पार लगाकर भी दिखाया और अब मुख्यमंत्री पद के बारे में आपसे यह पार लगेगा कि नहीं यह सवाल जिनके मन में उठ रहा था, उन्हें आप अपने काम से उत्तर दे रहे हैं। आपके मन में कभी यह सवाल उठा था कि आप यह जिम्मेदारी उठा पाएंगे या नहीं?
नहीं। मेरे मन में ऐसा सवाल बिल्कुल भी नहीं उठा। मैं जो कुछ करता हूं, वह दृढ़ता के साथ करता हूं। मन से करता हूं। कोई भी जिम्मेदारी लेनी है तो उस बारे में गहराई तक जाकर अध्ययन करना और उसमें अच्छे से बढ़िया काम किया जा सके, यही प्रयास करना। यह मेरा हमेशा प्रयास रहता है और रहेगा।
महाराष्ट्र की राजनीति में जो घटा या बिगड़ गया। कुछ लोगों का बिगड़ा, कुछ लोगों का बना। आप संतुष्ट हैं क्या!
मैं बनानेवाला हूं। बिगाड़नेवाला नहीं। जिस किसी का बिगड़ा होगा, ऐसा लगता होगा तो उन्होंने खुद ही बिगाड़ लिया। मैंने नहीं बिगाड़ा!
आपको क्या लगता है किसने बिगाड़ा…
जिनका बिगड़ा होगा, उन्होंने खुद ही बिगाड़ा है। ठीक है, जैसा तय हुआ था वैसा हुआ होता तो आज मैं आपके समक्ष मुख्यमंत्री बनकर नहीं बैठा होता। मैं हमेशा जैसा हूं, वैसा ही आगे भी रहूंगा। वैसा ही बैठा रहा होता। BJP पर उद्धव का वार
उद्धवजी, लोकसभा चुनाव से पहले एक छवि स्पष्ट थी कि शिवसेना अकेले दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। वैसी तैयारी भी हो गई थी लेकिन उसके बाद अचानक देश ने देखा कि अमित शाह आपसे मिलने आए और आप शाह के प्रचंड प्रेम में पड़ गए…
देखिए, जो करना है उसे उदारता से करना चाहिए। चोरी-छिपे नहीं करना चाहिए, यह मेरा स्वभाव है। आप देखें, वह समय वैâसा था। वे सामने से आए, वे खुद से आपके पास आए, ऐसा कहने पर मुझे भी ऐसा लगा कि ठीक है। बीच के दौर में जो कुछ भी हुआ होगा फिर भी, उसके पहले सालों साल से हमारी युति थी। अब पीढ़ी बदल गई है। शायद इससे थोड़ा से यहां-वहां हुआ होगा लेकिन फिर संबंध सुधर रहे हैं और हमारा उद्देश्य और ध्येय एक होगा तो रास्ता खराब करते रहने की बजाय जो हुआ, उसे भूलकर नई शुरुआत करने में कोई हर्ज नहीं है।
लेकिन नई शुरुआत बहुत ज्यादा रुचिवाली दिखी नहीं…
उतने तक तो वह रुचिवाली थी। तब भी आपने देखा होगा कि वे भी मुझे आत्मीयता से बुलाते थे। अमित जी के नामांकन के समय मैं अमदाबाद गया था। उसके बाद नरेंद्र भाई का अर्ज भरते समय वाराणसी गया था। मेरे मन में बीच के दौर में कहीं भी कटुता नहीं थी। दुविधा नहीं थी। कपट मैंने रखा नहीं था। उससे आगे जाकर लोकसभा के समय युति का प्रचार भी किया। BJP पर उद्धव का वार
विधानसभा चुनाव आए, तब सीटों के बंटवारे को लेकर थोड़ा विवाद हुआ। यह सभी ने देखा। आपने भी दो कदम पीछे लिए और युति बरकरार रखी…
हिंदुत्व के लिए बरकरार रखी। हिंदुत्व ही महत्वपूर्ण है।
हां, हिंदुत्व के लिए आपने युति बचा ली। विधानसभा चुनाव के प्रचार में हमने ऐसा देखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आपका उल्लेख ‘मेरे छोटे भाई’ कहकर करते थे…
मेरे लिए उतना ही काफी था।
आप उनके छोटे भाई बन गए…
अर्थात्! उम्र में बड़े व्यक्ति का बड़ा भाई वैसे होगा!
फिर भी वह रिश्ता टिका नहीं…
इस रिश्ते को बचाए रखने के लिए दोनों ओर से प्रयास होना चाहिए था। मेरी ओर से तो इस रिश्ते को बचाए रखने का प्रयास मैंने आखिर तक किया।
और देवेंद्र तो आपका उल्लेख ‘मेरे बड़े भाई’ इसी तरह करते थे…
हां। इन दो भाइयों के बीच मैं कैची में फंस गया। BJP पर उद्धव का वार
तो फिर यह भाईचारा वैसे हो गया? एक तरह से अच्छा चल रहा घर था, उसमें भाईचारे का दृश्य भी महाराष्ट्र ने देखा…यह रिश्ता ऐसे क्यों टूट गया?
मैं आज भी कहता हूं। शिवसेना महाराष्ट्र के भूमिपुत्रों के न्याय और अधिकार के लिए लड़ने के लिए जन्मी है। मराठियों के लिए जन्मी है। उसके बाद देश के हिंदुओं पर संकट आ रहा है, ऐसा शिवसेना प्रमुख को आभास हुआ तब शिवसेना प्रमुख ने हिंदुत्व को अंगीकार किया।
वर्ष 1987 के उपचुनाव शायद पहले चुनाव होंगे जो शिवसेना ने हिंदुत्व के मुद्दे पर सिर्फ लड़ा ही नहीं बल्कि जीता भी होगा। बाद में BJP साथ आ गई। उसके बाद जो कुछ भी हुआ…फिर रथयात्रा होगी…आदि-आदि करते हुए दो समविचारी पार्टियां एक साथ आर्इं। हिंदुत्व के मुद्दे पर एकत्र हुए, उसमें हमारे हिंदुत्व में वचन देना और वचन का पालन करना, इसका अपार महत्व है। यदि वचन तोड़ा जाता होगा तो मैं हिंदुत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं। BJP पर उद्धव का वार
फिर आज हिंदुत्व का क्या हुआ?
हम हिंदुत्व पर कायम हैं और रहेंगे! उसमें कोई जोड़-तोड़ नहीं है!
‘मैं फिर आऊंगा’ ऐसी कोई गर्जना किए बिना सत्ता में आए हैं लेकिन इस तरह से सत्ता में आने का समय पहले ही तय हो गया था क्या?
असल में आप क्या कहना चाहते हो? आपका इशारा किस ओर है?
जो ‘फिर आऊंगा, फिर आऊंगा’ ऐसा कहते थे, वे आए और ८० घंटों में निकल गए। लेकिन आप सत्ता में आए उस समय महाराष्ट्र में जिस तरह की राजनीति हुई…
देखिए, मैं आऊंगा ऐसा कभी-भी नहीं कहा। मैं इस तरह से आऊंगा, ऐसा मुझे और जनता को भी कभी लगा नहीं था। इस तरह से देखें तो कुर्सी पर बैठने की महत्वाकांक्षा मैंने कभी व्यक्त नहीं की थी। कुल मिलाकर सपने में भी मैंने कभी नहीं देखा था।
आप श्रद्धा कहें, अंधश्रद्धा कहें लेकिन आप जो बर्ताव करते हैं उसे कोई तो अज्ञात शक्ति उसे देखती रहती है। ऐसा ही अर्थ इसमें से लेने की इच्छा होती है। यह इतनी बड़ी जिम्मेदारी इसीलिए तो मेरे पास आई होगी। देश में कई राज्य हैं लेकिन यह जो मुख्यमंत्री पद है, यह दूसरों से बड़ा है, कीमती है क्योंकि यह छत्रपति शिवाजी महाराज के महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पद है। ऐसे महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री पद पर मुझे बैठाया गया यह उस शक्ति का ही आशीर्वाद है। शेष और क्या है!
हमेशा ऐसा कहते हैं कि यह महत्वपूर्ण पद मतलब कांटों से भरी कुर्सी होती है अथवा कांटों का ताज होता है। आपको ऐसा लगा क्या?
नहीं! मुझे ऐसा नहीं लगता। इसका कारण यह है कि कंटीला ही होता है लेकिन उसी कंटीले पौधे में गुलाब भी खिलता है और गुलाब के गुलकंद से जिन्हें बदहजमी होती है, ऐसे लोगों का उपचार भी होता है।
ठाकरे कभी सरकारी पदों पर बैठे नहीं थे। शायद महाराष्ट्र की, देश की ऐसी भावना थी कि ठाकरे ही एक सरकार है लेकिन अब ठाकरे मंत्रालय में सरकार बन गए हैं। अभी-भी लोगों को विश्वास नहीं होता कि सचमुच उद्धव ठाकरे वहां जाकर बैठकर क्या करते हैं अथवा मुख्यमंत्री हो गए हैं…
हां। लेकिन काम हो रहा है, इतना तो पता चल रहा है न! यह सरकार जोरदार ढंग से काम कर रही है, यह संदेश लोगों तक पहुंच रहा है न!
पता चलता है लेकिन उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनें, ऐसा महाराष्ट्र का सपना था। अभी-भी कई लोगों को ऐसा लगता है कि उद्धव ठाकरे एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर हैं…
होगा, लेकिन पहले जो आपने कहा कि यह महाराष्ट्र का सपना था, ऐसा सपना किसी मामले में ही जनता द्वारा देखना यह कई जन्मों का सौभाग्य होगा, मुझे नहीं पता। यह पूर्व संचित है। खुद ऐसा सपना देखे बगैर जनता द्वारा देखना और यह अनपेक्षित रूप से अनाकलनीय रूप से मूर्त स्वरूप ले ले, यह बड़ा भाग्य ही है।
खुद बालासाहेब ने घोषित किया था कि खुद कभी चुनाव नहीं लड़ेंगे। चुनाव ही नहीं लड़ेंगे कहने पर सत्तापद का सवाल ही नहीं उठता था। लेकिन फिर भी उनके इस निर्णय को लेकर आलोचना हुई। आप यह बाहर रहकर कहते हैं खुद करके दिखाएं। ठीक है, फिर मैं अब खुद तुम्हें करके दिखाता हूं। मतलब हम सत्ता की कुर्सी पर नहीं बैठे फिर भी आलोचना होती थी, वह हुई ही है। इसलिए मैंने तय किया कि अब खुद बैठकर तुम्हें करके ही दिखाता हूं।
डॉक्टर मनमोहन सिंह इस देश के उत्कृष्ट प्रधानमंत्री थे। दो बार उन्होंने यह महत्वपूर्ण पद संभाला। देश को अराजकता की खाई से बाहर निकाला। आर्थिक मंदी से बाहर निकाला। उनका उल्लेख ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ कहकर किया गया। एक बात आपको बताता हूं, जिनसे प्रारंभ में बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं रखी जाती हैं। उनके द्वारा देश की बहुत बड़ी सेवा हो जाती है। आपका भी जो ‘एक्सीडेंटल सीएम’ कहकर उल्लेख करते हैं, उन्हें मैं हमेशा डॉक्टर मनमोहन सिंह का उदाहरण देता हूं। हां। लेकिन उनकी तुलना में मैं कुछ थोड़ा ज्यादा बोलता हूं।
आपने अभी उल्लेख किया कि बालासाहेब ने कोई भी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन अब आप मुख्यमंत्री बन गए हैं। आपको चुनाव लड़ना होगा।
हां। यह तो परंपरानुसार हो ही गया।
अब आप चुनाव कहां से और वैसे लड़ेंगे? यह भी अंत तक रहस्य ही रखनेवाले हैं?
रहस्य नहीं। अगले दो-चार महीनों में यह निर्णय लेना ही होगा। BJP पर उद्धव का वार
आप विधानसभा में जाना पसंद करेंगे या विधानपरिषद में?
आपको बताऊं क्या! असल में मुख्यमंत्री बनने से पहले मैं उस विधानभवन में जीवन में दो-चार बार से अधिक नहीं गया होऊंगा। ऐसी देश में अपवादात्मक परिस्थिति निर्माण हो गई होगी कि कोई व्यक्ति, जिसका वहां जाने का पहले कभी सपना नहीं था। वह व्यक्ति आता है वह भी मुख्यमंत्री बनकर। मैं हमेशा कहता हूं कि जिम्मेदारियों से मैं कभी पीछे नहीं भागा और भागूंगा भी नहीं। इसलिए किसी को भी आहत किए बगैर जो संभव होगा, वह मैं करूंगा।
लेकिन आप विधानसभा में जाएंगे या विधानपरिषद में…
तुरंत अभी मुझे लगता है कि विधानपरिषद आएगा। विधानसभा में जाना मतलब जो निर्वाचित हुआ होगा उसका इस्तीफा दिलवाकर फिर चुनाव करवाना…
मतलब विधानपरिषद में जाएंगे?
विधानपरिषद की बजाय मेरा मत है कि यह जो जिम्मेदारी मिली है, उसे निभाने के लिए यदि विधानसभा से किसी को नाराज किए बिना परिषद में जाया जा सकता होगा तो क्यों नहीं जाना चाहिए? पिछले दरवाजे से, इस दरवाजे से, उस दरवाजे से यह सब बोलने के लिए ठीक है। फिर मैं तो कहूंगा, मैं छप्पर से आया हूं।
लेकिन यह तो संविधान द्वारा बनाई गई व्यवस्था है…
है ही न। मैं किसी भी द्वार से नहीं आया होने के कारण मैं कहूंगा, मैं ऊपर से गिरा हूं… छप्पर से।
एक आरोप आप पर हमेशा लगता है आपके पुराने मित्रों की ओर से। यह सब करने के लिए आपने अपने सिद्धांत छोड़ दिए और मुख्य मतलब हिंदुत्व से जोड़तोड़ की…
मैंने क्या धर्मांतरण किया है? और तुम कहोगे वही हिंदुत्व, ऐसा धर्म वाक्य है क्या? यह संविधान में लिखा है क्या कि ये कहेंगे वही हिंदुत्व है। आप मतलब सर्वज्ञ, सर्वव्यापी ऐसा भाव कोई न दिखाए। आप कहते हो वही सही है और बाकी के लोग जो कहेंगे वह झूठ है, ऐसा दावा हास्यास्पद है। ये दावा वे अपने कार्यालय में करें तो हर्ज नहीं है।
सरकार स्थापित करते समय तीन विचारधाराएं एक साथ आईं। अर्थात् कांग्रेस और राष्ट्रवादी की विचारधारा एक ही है। वो अलग नहीं है लेकिन शिवसेना के विचार के लिए दो मुख्य विरोधी विचार प्रवाह थे। यह प्रवाह एक साथ आया है…
इसमें दो भिन्न विचारधाराएं, तीन भिन्न विचारधाराएं आप कहते हो लेकिन केंद्र में जो सरकार है उसमें अभी कितनी पार्टियां हैं? उनके कितने विचार हैं? नीतिश कुमार और BJP की विचारधारा एक है क्या?
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महबूबा मुफ्ती और उनकी विचारधारा एक थी क्या? चंद्राबाबू की एक थी क्या? ममता बनर्जी उस समय सत्ता में थीं, उनकी विचारधारा एक थी क्या? जॉर्ज फर्नांडिस की विचारधारा एक थी क्या? रामविलास पासवान आज उनके साथ हैं, उनकी और BJP की विचारधारा एक है क्या? अब झारखंड में क्या हुआ? वहां विचारधारा मेल खाई क्या? ये सब वैसा है कि हुआ गया सब गंगा में मिल गया, ऐसा ही कहा जाए। हम गंगाजल घर में लाकर रखते हैं यह ऐसा ही है?
मतलब अब विचारधारा एक…
एक बात ध्यान रखो, सभी की विचारधारा है न। हम हिंदुत्ववादी हैं और रहेंगे ही। कांग्रेस की विचारधारा अलग है लेकिन दोनों-तीनों पार्टियां कुल मिलाकर इस देश में जितनी भी पार्टियां हैं, उनका उदाहरण लें। अपने-अपने राज्य का हित देश का हित इस विचार से कोई अलग है क्या? हमें राज का हित नहीं करना है क्या? देश का हित करना नहीं है क्या? देश में, राज्य में अराजकता फैलानी है क्या? और फिर भी हम तुम्हारे साथ आते हैं, ऐसा कहकर कोई एक साथ नहीं आया है। कश्मीर में जो विचारधारा की गफलत हुई थी, वैसी यहां हुई है क्या?
कश्मीर में तो अलगाववादियों से हाथ मिलाकर सरकार आई थी…
हां न। वहां तो वैसी ही सरकार आई थी। आतंकियों से चर्चा हुई थी।
महाराष्ट्र में ऐसा नहीं हुआ…
कहां हुआ? विचारधारा अलग मतलब क्या अलग है?
शरद पवार और सोनिया गांधी दो अलग-अलग पार्टियों के नेता हैं। कल तक आप सभी एक-दूसरे की आलोचना करते थे…
हां। की है आलोचना।
आज आप सत्ता स्थापना के लिए एकजुट हैं। इस पर भारतीय जनता पार्टी (BJP) लगातार टिप्पणी कर रही है…
ठीक है न। उन्हें करने दो। लेकिन मेरा सवाल ऐसा है कि पार्टी तोड़कर लाए गए लोग आपको मंजूर हैं तो फिर उस पार्टी से हाथ मिलाया तो क्या फर्क पड़ता है? उस पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं को भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने खुद में समाहित कर ही लिया है न। कांग्रेस के कितने नेताओं को उन्होंने लिया? उन्हें विधायक क्या, सांसद क्या अथवा अन्य कई पद भी दिए हैं। वे भी उसी विचारधारावाले थे न?
वहां जाकर वे शुद्ध हो जाते हैं…
यही है न। लेकिन यह लॉण्ड्री तुम्हारे पास ही है क्या? गंगाजल लेकर छिड़कते हुए घूमते हो सब जगह।
वहां जाने पर डाकू, वाल्मीकि बन जाते हैं, ऐसा तंत्र उनके पास है, ऐसा आपके पास है क्या?
डाकू का वाल्मीकि बनना, ये वाल्मीकि ऋषि का अपमान है और डाकू का भी अपमान है क्योंकि डाकू ईमानदार था। तपस्या करके वह वाल्मीकि बना। पार्टी बदलकर नहीं। इस पार्टी से उस पार्टी में गया और वो डाकू से वाल्मीकि नहीं बना। डाकू ने तपस्या की, उसके बाद वे वाल्मीकि बने हैं अब इनकी सत्ता चली गई, अब दल बदलनेवाले इन सभी लोगों का फिर क्या होगा? ये टोली अब क्या करेगी? यह उत्सुकता है। इसलिए उन्हें डाकू का वाल्मीकि बना, ऐसा कहना वाल्मीकि ऋषि का अपमान है।
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