तनवीर आलम
मुंबई, महाराष्ट्र
इस हफ्ते की एक घटना के बाद बिहार में मुसलमानों का एक बड़ा धड़ा खुलकर आरजेडी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला हुआ है। आरजेडी पर इल्ज़ाम है कि उसने अपने पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की बीमारी और संदेहास्पद मौत पर उनके परिवार के साथ नहीं खड़ा हुआ।
बिहार के मुसलमानों को एक बात साफ़ समझ लेनी चाहिए कि तेजस्वी यादव की आरजेडी लालू यादव की आरजेडी नहीं है। ये उत्तर प्रदेश की सपा-2 है। जिस तरह अखिलेश यादव मुसलमानों के मामले में ट्वीटर उस्ताद है उसी तरह तेजस्वी भी है। दोनों की एक जैसी लाइन है। तेजस्वी यादव न साम्प्रदायिकता पर मुखर है न मुसलमानों के मामले में ईमानदार। वो हो भी नहीं सकता। उसके परिवार की परिस्थिति ही ऐसी है। भ्रष्टाचार के इतने मामले हैं कि वो हर बार केंद्र में बैठी सत्ता के आगे घुटने टेक देगा। इसलिए वो आगे भी अब समझौतावादी मोड में ही काम करेंगे।
पहले भी मेरा अपने साथियों से अल्पसंख्यक मामलों पर सेक्युलर पार्टियों के दोहरे चरित्र को लेकर अक्सर नोक-झोंक होती रही है। मेरा साफ मानना है कि एक ऐसे समाज को जिसके पहनने से लेकर खाने और इबादत करने तक पर वर्तमान सत्ता और उसके समर्थकों द्वारा प्रताड़ित किया जाता हो उसकी समस्याओं को अड्रेस नहीं करेंगे तो उसके अंदर असंतुष्टि और अविश्वास उत्पन होगा ही। वो अपने आपको अकेला और लाचार समझेगा ही। अल्पसंख्यक समाज की इस समस्या को वर्तमान में देश की कोई भी मुख्यधारा की पार्टी मज़बूती से नहीं उठाती और न ही उसके साथ मज़बूती से खड़ी रहती है। हर पार्टी ये समझती है कि कहीं उनके ऊपर मुस्लिम तुष्टिकरण की मुहर न लग जाए। इन पार्टियों को मुसलमानों का वोट तो चाहिए लेकिन समस्याओं पर मात्र अपनी सहूलत या सांकेतिक रूप में खड़े रहना है। इस तरह बहुत मुश्किल है किसी भी समाज के वोटर को जोड़े रहना।
मुसलमानों की अपनी राजनीतिक समझ है। जिसके पीछे जाएंगे भीड़ बनकर जाएंगे। ये राजनीतिक पार्टियां बहुत अच्छे से समझती हैं। बल्कि अरविंद केजरीवाल का तो इस पर वीडियो वायरल हो चुका है। मुसलमानों में वार्ड स्तर पर, निचले स्तर पर कम्युनिटी लीडरशिप का कोई मज़बूत तंत्र नहीं है। हर कोई सीधे लालू-तेजस्वी-मुलायम-अखिलेश-मायावती-ममता सरीखे नेताओं से ‘रूहानी’ रूप से जुड़ा पाता है। यही उनके एकजुट रहने की ताक़त भी है और यही उनके शोषण का कारण भी। कम्युनिटी का वो आदमी जिसको सियासी दुनिया की सही समझ है वो इनके लिए ‘बोका’ है। इनके पक्ष में खड़े होकर, भाजपा, मोदी और आरएसएस को चार गाली दे देने वाला मसीहा। सियासी पार्टियां मुसलमानों के इस मनोविज्ञान को भी ख़ूब समझती हैं।
बिहार में मुसलमानों की सबसे हितैषी पार्टी होने का दावा करने वाली आरजेडी अब अपना वो विश्वास खोते जा रही है। तेजस्वी यादव ने जब से पार्टी की कमान अपने हाथों में ली है तब से इसमें तेज़ी आई है। उसका कारण साफ है, वो मुसलमानों के मुद्दे पर संवेदनहीन है, सांकेतिक है।
सवाल ये है कि सब जानते हुए भी इसका हल क्या है? भाजपा के साथ मुसलमान जा नहीं सकता। भाजपा गठबंधन में साथ रहने के कारण नीतीश कुमार पर कभी भरोसा नहीं किया। 2014 में अकेले लोकसभा चुनाव लड़ने पर भी नहीं किया गया। कांग्रेस अपनी पुरानी चाल में है। बिहार में कांग्रेस पार्टी में न कोई संगठन है, न जनमुद्दों से उनके नेताओं को कोई सरोकार। फिर मुसलमानों के पास राजनीतिक विकल्प क्या है? या तो वो गुजरात के मुसलमानों की तरह सिर्फ वोटर मात्र बन जाये या आरजेडी को छोड़कर वो लेफ्ट, कांग्रेस और जदयू किसी भी पार्टी में भी अपनी सम्भावना तलाश करे। मुसलमान अपनी दलगत राजनीति की इच्छाओं को कुछ साल दबाकर किसी संगठन के साथ ग़ैर-दलीय राजनीति करे। जनसरोकारों पर काम करते हुए अपनी स्थिति मजबूत करना भी एक अच्छा विकल्प है। इतनी बड़ी आबादी का चौथाई या आधा हिस्सा भी जिस संगठन में जायेगा वो अपने आप में एक पार्टी बन जाएगी। किसी एक ब्यक्ति या परिवार द्वारा संचालित किसी पार्टी के साथ लंबी वफादारी अहंकार, अंदेखापन और तानाशाही को बढ़ावा देती है।
सियासत सिर्फ़ किसी पार्टी के झंडे ढोना, वोट देना या चुनाव के लिए टिकट की लाइन लगना ही नहीं है। इन सबसे हटकर समाज के ज्वलंत मुद्दों से ख़ुद और अपने लोगों को जोड़कर कर भी राजनीति की दिशा बदली जा सकती है। ज़रूरत है धैर्य, संयम और सही मार्गदर्शन सही दिशा में लगातार काम करते रहने के। मुस्लिम समाज के युवाओं को इस ओर रुझान बढ़ाने की ज़रूरत है।
समाज बदलेगा, राजनीति बदलेगी।
(तनवीर आलम- लेखक एएमयू ओल्ड ब्वाएज एसोसिएशन, मुंबई के अध्यक्ष हैं और समसामयिक विषयों पर लिखते रहे हैं। ये लेखक के अपने विचार हैं)
06.05.2021