लियाक़त अली, एमए, बीएड
आज़मगढ़, यूपी
बदलाव प्रकृति का नियम है, और प्रकृति के साथ सामंजस्य को बनाये रखने में इंसान की सहज प्रवृत्ति होती है। इसे परिवर्तनशील बनाकर उसके बौद्धिक विकास में सहायक होती है। यही इंसान के निरन्तर विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। मौजूदा समय में विकास की दौड़ में हम शायद अपनी विरासत, अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूलते जा रहे हैं, जो कभी हमारी पहचान थी।
उन्नति और विकास की सीढ़ी का प्रथम पायदान शिक्षा से आरम्भ होता है। संस्कृति और संस्कार की नींव का पहला पत्थर भी शिक्षा ही है। आज की भौतिकतावादी संस्कृति और प्रतियोगितापूर्ण वातावरण में हमारे संस्कारों की विरासत कहीं खोती जा रही है। कभी हमारा देश विश्वगुरु बनकर सबके सामने था लेकिन आज शिक्षा और शिक्षक के मायने बदलते जा रहे हैं। गुरु और शिष्य के बीच सम्बन्धों की गरिमा धूमिल हो रही है। सम्मान तथा मर्यादा का उल्लंघन होने लगा है।
आज के दौर में माता-पिता, भाई-बहनों और दूसरे परिवारिक रिश्तों के बीच बढ़ती दूरियाँ गम्भीर चिंता का विषय है। मौजूदा दौर में हमारे आपसी सम्बन्ध भी व्यवसायिक चुके है। यहीं वजह है कि बच्चों में शालीनता, सौम्यता, सहनशीलता, धैर्य, नैतिकता और परमार्थ जैसे सद्गुणों का विलोपन होता जा रहा है। मानवीय मूल्यों को ह्रास होता जा रहा है। इंसानों में नैतिकता का पतन हो रहा है। आज हमारे चारों तरफ असुरक्षा औऱ भय का माहौल व्याप्त है, जिसमें ख़ासतौर पर हमारी बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं। खूले आसमानकी बात तो छोड़ दें, बेटियाँ अपने घरों में भी अपने आप को असुरक्षित महसूस करती हैं।
इन सब बातों को व्यवहारिक रूप में अनुभव करते हुए मैंने शिक्षा में इन गुणों को शामिल करने का निर्णय लिया। यह तो सही है कि इंसान भले ही कितना शिक्षित क्यों न हो जाय यदि उसमें संस्कार और सद्गुणों का अभाव है, तो उसकी शिक्षा बेकार है। यह बात समान रूप से छात्रों के साथ-साथ शिक्षा देने करने वाले शिक्षकों पर भी लागू होती है। जब खुद शिक्षक में सद्गुणों और संस्कारों का अभाव होगा तो वह अपने शिष्यों को कैसे अच्छे स्तर की शिक्षा देगा।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आज प्राथमिक स्तर की शिक्षा भी व्यवसायिक हो चुकी है। एक शिक्षाविद् होने के कारण मैंने व्यवसायिकता के जगह समाजवादिता और परिवार की भावना जगाने वाली शिक्षा को प्राथमिकता दी। मैंने स्कूल में आधुनिक उपकरणों से युक्त आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ छात्रों में नैतिकता, चारित्रिकता, आध्यात्मिकता, अपनत्व और आपसी सहयोग जैसे सद्गुणों को भी व्यक्तित्व में समाहित किया। इससे फायदा भी हुआ है।
आज माता-पिता से अधिक यह दायित्व शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों का है कि वह डिग्री के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की शिक्षा भी प्रदान करें। छात्र अच्छे शिक्षाविद्, वैज्ञानिक, खिलाड़ी, अधिकारी, उद्योगपति कुछ भी बनें लेकिन इससे पहले वह अच्छे सद्गुण से सम्पन्न एक इन्सान बनें।
स्कूल स्थापना का मेरा उद्देश्य ही यही था। आज दस साल पूरे होने पर मैं गर्व का अनुभव करते हुए यह कह सकता हूँ कि शिक्षा के साथ नैतिक मानवीय मूल्यों और संस्कारों के साथ पोषित और पल्लवित एक नयी पीढ़ी समाज व राष्ट्र को देकर अपने कर्तव्यों का निर्वाहन पूरी सच्चाई तथा ईमानदारी से करता आ रहा है।
(लेखक शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हैं और रफी मेमोरीयल स्कूल, माहुल आज़मगढ़ के मैनेजर हैं)