उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार जोरों पर है। इस चुनाव में ओबीसी फैक्टर की चर्चा जोरों पर है। स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान जैसे नेताओं के भाजपा छोड़ने के बाद सपा ओबीसी वोटों में बड़ी सेंध लगाने की उम्मीद कर रही है। लेकिन इस बार दलित वोटों को लेकर उतनी चर्चा नहीं दिख रही है, जिसने कई बार राज्य की सत्ता में फेरबदल किए हैं। एक तरफ मायावती चुप हैं तो वहीं भाजपा दलित मतदाताओं को लुभाने के लिए सक्रिय नजर आती है। हालांकि समाजवादी पार्टी गैर-यादव ओबीसी की बात तो कर रही है, लेकिन दलित मतदाताओं तो संदेश देने में कमजोर नजर आ रही है। यहां तक कि चंद्रशेखर आजाद की पार्टी से गठबंधन भी अखिलेश यादव नहीं कर पाए हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर राज्य में 21 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाला दलित समुदाय किसे अपना आशीर्वाद देगा। भाजपा की बात करें तो 8 जनवरी को चुनावों के ऐलान से पहले ही वह प्रदेश के सभी 75 जिलों में सामुदायिक सम्मेलन कर चुकी है। यही नहीं टिकट बंटवारे में भी उसने दलितों को तवज्जो दी है। 105 उम्मीदवारों की पहली सूची में भाजपा ने 19 दलित उम्मीदवारों को जगह दी है। इनमें से 13 जाटव बिरादरी के हैं, जिससे मायावती आती हैं। इस बिरादरी की दलित समुदाय की कुल जनसंख्या में करीब 55 फीसदी की हिस्सेदारी मानी जाती है।
जाटवों को साधने के लिए भी भाजपा ने बनाई रणनीति
दलित मतदाताओं में जाटवों की हिस्सेदारी 55 फीसदी के करीब है। इस बार भाजपा इन्हें साधने के लिए बेबी रानी मौर्य को उतार चुकी है, जो इसी बिरादीर से आती हैं। अन्य 45 फीसदी के बड़े हिस्से में भाजपा पहले ही मजबूत है। कभी कांग्रेस के पाले में रहे दलित मतदाताओं ने 1990 के शुरुआती दौर में बीएसपी का रुख किया था और अब मायावती की निष्क्रियता ने उन्हें नया ठिकाना तलाशने के लिए मजबूर किया है। हालांकि मायावती को भी इस वोटर बेस में फिलहाल कमजोर नहीं माना जा सकता। अपनी पहली लिस्ट में उसने ब्राह्मणों, मुस्लिमों और दलितों तो जमकर टिकट बांटे हैं।