विनोद वर्मा
1999 की बात है। अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे। मैं दिल्ली में देशबंधु के लिए काम कर रहा था। मैने अपने संपादक जी के निर्देश पर उनसे साक्षात्कार के लिए समय मांगा। समय मिलने में कुछ विलंब हो गया। इस बीच उनकी सरकार एक वोट से गिर गई। चुनाव घोषित हो गई। एक दिन उनके प्रेस सलाहकार का फ़ोन आया कि आपने साक्षात्कार के लिए जो समय मांगा था वह हो गया है। उन्होंने अगले दिन प्रधानमंत्री निवास पहुंचने की सलाह दी।
मैं प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का साक्षात्कार करना चाहता था। लेकिन अब वे कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे। थोड़े असमंजस में था, सो मैंने संपादक जी को फ़ोन लगाया। उन्होंने कहा कि जब हम चाहते थे तब बात और थी। अब वे चाहते हैं तब बात और है। हम इस समय साक्षात्कार करें तो हमारे साक्षात्कार के ज़रिए वे चुनाव प्रचार ही करेंगे। हमें विनम्रता से कह देना चाहिए कि हमें अब साक्षात्कार नहीं चाहिए। मैंने ऐसा ही किया।
आज आश्चर्य हुआ कि कैसे एक टीवी चैनल ऐन चुनाव के वक़्त प्रधानमंत्री का साक्षात्कार लेता है और उस पर गर्व से फूला नहीं समाता। वह इसे राजनीति बदलने वाला बताता है और इसका भरपूर प्रचार भी करता है। लेकिन साक्षात्कार को देखें तो स्पष्ट है कि वह मोदी जी के लिए मुफ़्त में चुनाव प्रचार है। उन्होंने कोई मौक़ा भी नहीं छोड़ा।
पत्रकारिता के मानदंडों का फ़र्क हैं।
(विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई संस्थानों में काम कर चुके हैं। उन्हें पिछले साल झारखंड पुलिस ने गिरफ्तार किया था।)