तनवीर आलम की फेसबुक वाल से
मुंबई, महाराष्ट्र
काफी दिनों से लिखना बंद किया हुआ था। लेकिन बीते दो दिनों से सोशल मीडिया पर मौलाना सलमान हुसैनी नदवी को लेकर खूब चर्चा बनी हुई है। मौलाना द्वारा बाबरी मस्जिद का हल आपसी बातचीत से सुलझाने वाले बयान के बाद आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उन्हें बोर्ड से बाहर कर दिया। उनके निकाले जाने को मुसलमानो का एक बड़ा तबका जश्न के रूप में मना रहे थे। उनके बारे में अभद्र टिप्पणीयां कर रहे थे और यहां तक कि कुछ मुसलमानों के तथाकथित हमदर्द नेताओं ने उन्हें मुनाफ़िक़ तक कह डाला।
मेरी जिज्ञासा जागी की असल मामला क्या है समझना चाहिए। इसी संदर्भ में फेसबुक पर असदुद्दीन ओवैसी का बोर्ड की मीटिंग के आखिरी दिन में दिया भाषण भी था। पूरे 36 (छत्तीस) मिनट के भाषण को सुना। सुनने पर बहुत कुछ साफ हो गया था। इसी संदर्भ में एक लेख मोहम्मद सज्जाद की भी मिली। प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर हैं। उन्होंने भी अपनी आदत के मुताबिक बड़ी मज़बूती से अपनी बात रखी है। किसी भाई ने मौलाना सलमान हुसैनी नदवी की एक मीटिंग की स्पीच में मुझे टैग भी किया था उस पर पर नज़र गयी। उनकी बात भी पूरी सुनी और अब बिना अपना मत रखे मेरे लिए सोना मुश्किल है।
- सवाल है कि जब मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या मौलाना सलमान हुसैनी नदवी या दूसरे संगठन या ब्यक्ति अपना बयान देकर इस मामले को समय समय पर तूल क्यों देते रहते हैं? क्या इन्हें मुल्क के कानून और संविधान पर यकीन नही? और अगर है तो चाहे शाह बानो केस हो या एकसाथ तीन तलाक़ जैसा मामला हर बार ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इतनी जल्दी क्यों मची रहती है। एक साथ तीन तलाक़ मामले में AIMPL के दावे के मुताबिक़ इन्होंने 5 (पांच) करोड़ मुसलमानों के दस्तखत कराये। अगर यही मेहनत वो इस मामले को कोर्ट में जाने से पहले कर लेते तो मुखाल्फीन को इतना बावेला मचाने का मौका ही नही मिलता। जब आपको मालूम है कि एक साथ तीन तलाक़ ग़लत है और हिंदुस्तान के अलावा इसको कहीं नही माना जाता तो आपने समय रहते इसका हल खुद क्यों नही निकाला? मामला जब कोर्ट गया तो वहां भी आपके लिए मौक़ा था आप कोर्ट से कह सकते थे उलेमा के दखल से इस पर सख्त से सख्त कानून बने। वहाँ भी आपने चूक कर दी। अब आप फिर बाबरी मस्जिद पर कोर्ट के फैसले के पहले ही आपस में तलवारें निकाल रहे। अब आप आपस में शक्ति का प्रदर्शन करेंगे और सामाजिक, आर्थिक और मानसिक रूप से गिरते हुए मुस्लिम समाज को और गिराएंगे।
2. दूसरी बात बहुत महत्वपूर्ण है जो भारतीय समाज के वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक को प्रभावित कर रही है और आगे और करेगी। बल्कि स्थिति को और भी भयावह बनाएगी। असदुद्दीन ओवैसी की राजनीति का ध्रुव मुसलमान है और बीजेपी की राजनीति का ध्रुव हिंदुत्व। अगर राजनीतिक विभाजन इसी पर होता रहा तो इसके परिणाम क्या होंगे? ओवैसी के सुर में सुर मिलाकर जब मुसलमानों का बड़ा तबक़ा मुसलमान-मुसलमान चिल्लायेगा तो मोदी के सुर में सुर मिलाकर हिंदुओं का बड़ा तबक़ा क्यों नही हिन्दू-हिंदुत्व और हिंदुस्तान चिल्लायेगा? मैं ओवैसी साहेब की एक सांसद के रूप में इज़्ज़त करता हूँ लेकिन सोचने की बात है कि वो जो राजनीति करते हैं उससे किसका फायदा होता है? अंदरूनी बीजेपी के साथ उनकी सांठ-गांठ है या नही… इस बात को अगर हम न भी कहें तो सवाल तो ये ज़रूर उठेगा कि आखिर वो 2014 से बीजेपी के सत्ता में आने के बाद ही पूरे भारत में चुनाव क्यों लड़ने लगे? उनकी पार्टी तो बहुत पुरानी है, उनके पिताजी बहुत पढ़े लिखे ब्यक्ति भी थे। बावजूद वो हैदराबाद की चहारदीवारी को ही लक्ष्मण रेखा बनाकर रखे रहे। ऐसे समय में जब देश का संविधान और लोकतंत्र ही खतरे में है तो ऐसी क्या बात है जो ओवैसी देश भर में चुनाव लड़ने लगे। जहां जहां उन्होंने चुनाव लड़ा वहां के परिणामों से साफ पता चलता है कि ओवैसी की राजनीति से सीधा-सीधा बीजपी का फायदा पहुंचा है।
3. तीसरी बात, मौलाना सलमान हुसैनी नदवी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य या पदाधिकारी हो सकते हैं, मौलाना वली रहमानी हो सकते हैं और असदुद्दीन ओवैसी भी हो सकते हैं। मौलाना सलमान हुसैन नदवी को अपना स्वतन्त्र विचार रखने का पूरा अधिकार है जिस प्रकार से बोर्ड के दूसरे सदस्यों को अपना पक्ष रखने का अधिकार है। लेकिन एक ऐसे प्लेटफॉर्म की मीटिंग जिसकी बुनियाद शरीयत की हिफाज़त के मकसद से रखी गयी उसकी मीटिंग एक राजनीतिक पार्टी के हेडक़वार्टर में क्यूं रखी गयी? बोर्ड के ज़िम्मेदारों ने ऐसा फैसला क्यों लिया? बोर्ड के सभी ज़िम्मेदार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बुद्धिजीवी हैं फिर भी उन्होंने ऐसा क्यों किया? उन्हें इसकी मीटिंग किसी न्यूट्रल जगह पर क्यों नही रखी? और अगर ये सोच समझ कर किया गया है तो क्या मान लिया जाए कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो चुका है! अगर ऐसा है तो हम एक बहुत बड़े खतरे की तरफ बढ़ रहे हैं। और इसके बाद सहजता से समझा जा सकता है कि बोर्ड में या तो अक्सर लोगों को राजनीति की समझ नही है या बिकाऊ हैं
4. आखिरी बात ये है कि हमारा प्रबुद्ध समाज और हमारे धार्मिक गुरु तलाक़-ए-बिदअत पर हुए इस पूरे मामले की असल जड़ पर बात ही नही करते। मैं लोगों को याद दिलाना चाहता हूँ कि शाह बानो केस की असल वजह ‘मेंटेनेंस’ थी और जब जज ने शाह बानो के पति को सुनवाई के दौरान कहा कि चाहे भारतीय क़ानून हो या पर्सनल लॉ, दोनो के आधार पर आपको मेंटेनेंस देना होगा तो उस 500 रुपया माहाना खर्च से बचने के लिए शाह बानो के पति मोहम्मद अहमद खान जो पेशे से खुद एक वकील था ने इंदौर के अदालत में उसी वक़्त शाह बानो को तलाक़ दे दिया था। शरीयत का खुला मज़ाक़ बनाया गया अपने मुफाद को साधने के लिए ये सबको पता है। तारीख़ का अमिट बदनुमा हिस्सा है वो केस और मानवता पर खुला तमाचा। और आड़ ली गयी शरीयत की। शरीयत के इस ग़लत इस्तेमाल पर कोई भी धार्मिक संस्थान या गुरु खुलकर बात नहीं करता। असल मुद्दे को दरकिनार करके मसलकी प्रभुत्य कैसे बना रहे इसकी फ़िराक़ में हर जमात है। सच तो ये है कि इस्लाम चरित्र से ग़ायब है।
मैंने भारतीय जन मानस और विशेष मुसलमानों के सामने अपनी बात रख दी है जिसका मुझे अधिकार है। मुझे आशा है कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मेरे इस सवाल भारतीय मुसलमानों का सवाल समझेगी और इसपर अपनी बात भी रखेगी।
आपका,
तनवीर आलम
अध्यक्ष, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पूर्व छात्र संगठन, मुम्बई, महाराष्ट्र।
मोब- 9004955775
ईमेल- tanweer1786@gmail.com
शरीयत की हिफाज़त करने वाली तंज़ीम की मीटिंग एक राजनीतिक पार्टी के मुख्यालय में क्यों नहीं रखी जा सकती है जबकि शरीयत प्रदाता नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ख़ुद दुनिया के आदर्श राजनीतिज्ञ हैं और राजनीति के बिना शरीयत व शरीयत के बिना राजनीति अधूरी है।