उबैद उल्लाह नासिर
लखनऊ, यूपी
2019 के संसदीय चुनाव को लेकर बीजेपी के माथे के बल सामने आने लगे हैं। गहन चिन्तन मनन के बाद संघ और बीजेपी के बड़े नेता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि केवल हिंदुत्व ही उनकी नय्या पार लगा सकता है। यही कारण है कि मेरठ में हुई बीजेपी की मीटिंग में मोदी योगी सरकार के कथित विकास कार्यों के बजाय नफरत हिंसा और सांप्रदायिक विभाजन का पर्याय बन चुके हिंदुत्व को खेवनहार बनाने का फैसला गया। बीजेपी का नेतृत्व जानता है कि नौजवानों की बढती बेरोज़गारी, किसानों और छोटे कारोबारियों में फैली मायूसी के कारण वह इनके सामने अपनी किसी सफलता को रख कर वोट नहीं मांग सकती है। इसलिए उसने झूठ, लफ्फाज़ी और सांप्रदायिकता के सहारे 2019 का चुनाव जीतने का मंसूबा बनाया है।
इसके अलावा उसने सोशल इंजीनियरिंग का भी सहारा लिया लेकिन यह उलटा उसके गले पड़ रहा है। उसने दलितों को रिझाने के लिए दलित एक्ट में सुप्रीम कोर्ट को फैसले को बदलने और प्रोमोशन में आरक्षण देने जैसे क़दम उठाये, लेकिन इससे उसका सवर्ण वोट बुरी तरह नाराज़ हो गया है। रिजर्वेशन के खिलाफ जितनी मुखर आवाज़ अब उठ रही है वैसी इससे पहले कभी नहीं उठी थी। बहुत से लोगों विशेषकर दलितों और पिछड़ों का ख्याल है कि यह आवाज़ आरएसएस के इशारे पर उठाई जा रही है जिससे उसका दोहरा चरित्र उजागर हो रहा है। एक प्रकार से देखा जाय तो इस मामले में बीजेपी “न खुदा ही मिला न विसाले सनम” वाली स्थिति में दिखाई दे रही है, क्योंकि सब को खुश रखने के चक्कर में वह किसी को खुश नहीं रख पा रही है।
बीजेपी के सामने सब से बड़ा खतरा उत्तर प्रदेश और बिहार में उभर रहा महागठबंधन है, जिसके कारण विगत मध्यावर्ती चुनावों में गोरखपुर की मुख्यमंत्री और फूलपुर की उप मुख्यमंत्री द्वारा खाली की गयी अपनी परम्परागत सीट भी नहीं बचा पायी थी। कैराना की सीट पर भी उसका विगत कई चुनावों में कब्जा रहा है। इस सीट को जितने के लिये बीजेपी ने कोई कसर नही छोड़ी थी। जिन्ना बनाम गन्ना से लेकर चुनाव से एक दिन पहले बिलकुल सटे क्षेत्र में प्रधानमंत्री मोदी की रैली चुनाव के दिन भरी गर्मी में EVM में खराबी से वोटरों विशेषकर मुस्लिम वोटरों को वोट डालने से रोकने तक की ट्रिक अपनाई गयी। लेकिन ना केवल वहाँ उसको हार का सामना करना पडा बल्कि वर्षों से बिखरा समाजी ताना बाना भी बनता दिखाई दिया। यहाँ लाइन में लगे जाट वोटरों ने मुसलमानों को पहले वोट दे देने दिया ताकि उन्हें रोज़ा होने के कारण देर धुप में न खड़े रहना पड़े।
विगत लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 73 पर कब्जा किया था। समाजवादी पार्टी को पांच और कांग्रेस को केवल दो सीटें मिली थीं। जबकि बहुजन समाज पार्टी का खाता भी नहीं खुला था। इसी प्रकार बिहार की 40 सीटों में से उस ने 35 सीटें जीती थीं। लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रिय जनता दल और कांग्रेस को मिला कर पांच सीटें जीती थीं। इस प्रकार दोनों राज्यों की 120 सीटों में से उस ने लगभग 108 सीटों पर कब्जा कर लिया था।
सियासी पंडितों का ख्याल है कि अगर उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का गठजोड़ हो गया तो बीजेपी के लिए 25 सीटें जीतना मुश्किल हो जायगा। इस गठबंधन में कांग्रेस और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल भी शामिल हो जाए तो बीजेपी 15 से 20 सीटें ही जीत पाएगी। बिहार में यद्यपि कि नीतीश कुमार से गठबंधन करके बीजेपी ने अपनी पोजीशन मज़बूत कर ली हैं, लेकिन इस चक्कर में नीतीश की पोजीशन बहुत कमज़ोर हो गयी है। एक ओर उन पर बिना किसी ठोस कारण के लालू प्रसाद यादव को धोखा देने का इलज़ाम है, दुसरे लालू के जेल जाने और लगभग वैसे ही जुर्म में पंडित जगननाथ मिश्र के बरी हो जाने से बिहार के जातिवादी समाज में लालू यादव के प्रति हमदर्दी बढ़ी है। उसके साथ ही उनके पुत्र तेजस्वी यादव ने जिस प्रकार लालू की सियासी विरासत को सम्भाला है, उससे राष्ट्रीय जनता दल की लोकप्रियता में बहुत इजाफा हो गया है। यही कारण है की नीतीश के अलग होने के बाद हुए सभी उपचुनावों में राष्ट्रीय जनता दल को शानदार सफलता मिली। तेजस्वी यादव लोकप्रियता के मामले में अपने पिता लालू को पीछे छोड़ते दिखायी दे रहे हैं। समाज के उस वर्ग में भी उनकी स्वीकार्यता देखने को मिल रही है जो लालू के नाम पर ही बिदक जाता है।
इस प्रकार उत्तर प्रदेश और बिहार की 120 लोक सभा सीटों में से इस बार बीजेपी का 50 सीटें पाना भी दुर्लभ दिखायी दे रहा है। इसकी काट के लिए बीजेपी के पास दो रास्ते हैं, एक ज़्यादा से ज़्यादा साम्प्रदायिक ध्रुविकरण और जातियों के बीच गलतफहमी के बीज बोना जैसा उसने यूपी विधान सभा चुनाव के समय किया था अर्थात दलितों के गैर जाटवों को जाटवों के खिलाफ और गैर यादव पिछड़ों को यादवों के खिलाफ भडका कर किया था। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में मायावती को गठबंधन से दूर रखने का हर संभव प्रयास भी जारी है। इसके लिए बहुत सी बातें सुनने को मिल रही हैं कि मायावती को बीजेपी की ओर से क्या क्या ऑफर मिल रहे हैं, लेकिन चूँकि इस सम्बन्ध में कोई ठोस बात अब तक सामने नहीं आई है। इसलिए उनका लिखना मुनासिब नहीं है।
सीटों को लेकर मायावती का सख्त मोलभाव खतरे की घंटी तो है ही। हालांकि दिल से वह भी जानती हैं कि अगर गठजोड़ को लेकर उन्होंने विधान सभा चुनाव वाली गलती दोहराई तो उसकी कीमत भी उन्हें उससे भी भारी चुकानी पड़ सकती है, क्योंकि इस बार यह सियासी गठबंधन अवाम के दबाव के कारण भी हो रहे हैं। मायावती अगर यह समझती हैं कि उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल भी साबित हो सकता है।
बीजेपी का मज़बूत वोट बैंक मध्य प्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी है। इस तीनों राज्यों में इस साल के अंत तक विधान सभा चुनाव होने वाले हैं और एक टीवी चैनल द्वारा कराये गए सर्वे के अनुसार तीनो जगह बीजेपी बुरी तरह हार रही है। ज़ाहिर है इसका असर तुरंत बाद होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी पडेगा। कुल मिलाकर देखा जाय तो उसको 2014 में सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाली हिंदी पट्टी से इस बार बीजेपी को बहुत बड़ा झटका मिलने की प्रबल संभावना है। बीजेपी इसकी बंगाल, ओडिशा, आसाम आदि से भरपाई करने का जतन कर रही है, लेकिन हिंदी पट्टी का झटका इतना बड़ा लगने की सम्भावना है कि अन्य राज्यों की मरहम पट्टी से उसकी भरपाई संभव नहीं होगी।
एक वरिष्ट पत्रकार का कहना है कि 2014 में जब बीजेपी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थी और जब सब कुछ उसके फेवर में था। तब उसे 31% वोट मिले थे। इस बार अगर सत्ता मुखालिफ रुझान के चलते उसके 5% वोट भी घटे तो उसकी 100 से अधिक सीटें घट जायेंगी। फेसबुक पर बीजेपी के एक भक्त पत्रकार ने भी सभी राज्यों की सम्भावित सीटों को जोड़कर बताया है कि किसी भी प्रकार से बीजेपी को 180 सीटों से ज्यादा नहीं मिलेंगी। ज़ाहिर है कि उन्होंने जनता के बीच बीजेपी के विरोध का वैसा मूल्यांकन नहीं किया होगा जैसा किया जाना चाहिए।
कुल मिला के देखा जाए तो 2019 बीजेपी के लिए बड़े खतरे की घंटी है, लेकिन उसके तरकश में तीरों की कमी नहीं है। वह हारी हुई बाज़ी पलटने की माहिर भी है। देखना होगा कि वह इसके लिए क्या क्या हथकंडे अपनाती है, और इसकी कीमत समाजी ताने बाने को कितनी अदा करनी पड़ सकती है।
(ओबैद उल्लाह नासिर वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई अखबारों में बतौर संपादक रह चुके हैं)