डॉ अशफाक अहमद
लखनऊ, यूपी
मुल्क में आज़ादी के बाद से सेक्यूलर के नाम पर बेवकूफ बनाने वाले ज़्यादातर राजनीतिक दल अब अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। बीजेपी विरोध के नाम पर वोट हासिल करने वाले तमाम दल मोजूदा वक्त में संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। संकट कोई छोटा नहीं है बल्कि ये संकट अपनी पहचान बचाने का और अपने खत्म होते अस्तित्व को बचाने का हैं। गौर करें तो मुल्क में बीजेपी लगातार मज़बूत होती जा रही है। कुछ एक राज्यों को छोड़ दें तो कांग्रेस का वजूद अपने सबसे खराब दौर में हैं। सेक्यूलरिज़्म के नाम पर वोट लेने वाले तमाम दूसरे दल भी कहीं न कहीं मुश्किल हालात से गुज़र रहे हैं।
आज़ादी के बाद जब संविधान बना तो मुल्क को सेक्यूलर स्टेटस दिया गया। दरअसल इसके पीछे वजह ये थी कि मुल्क में धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर नाइंसाफी न हो। पर ये सेक्यूलर शब्द राजनीति का शिकार हो गया। इसी सेक्यूलर शब्द की आड़ में कांग्रेस ने राजनीति शुरु की और 60 साल तक सत्ता में रही। उसके बाद कई क्षेत्रीय दलों ने सेक्यूलर राजनीति के नाम पर सत्ता हासिल की। पर ये तथाकथित सेक्यूलर दल सिर्फ फायदा उठाते रहे। सेक्यूलर के नाम पर सबसे ज़्यादा नुकसान मुसलमानों का हुआ। अपने ही मुल्क में मुसलमान दो पाटों के बीच पिसता रहा। विकास की दौड़ से मुसलमान कहीं पीछे छूट गया। कहीं दंगों का दंश, तो कहीं आतंकवाद का ठप्पा… ये सब मुसलमानों की नियति बन गई। सेक्यूलरिज़्म के नाम पर मुसलमानों का वोट हासिल करने वाली सरकारों ने ही मुसलमानों के सबसे ज़्यादा नुकसान किया।
सेक्यूलरिज़्म का दावा करने वालों का हालिया कारनामा देखिए… हाल ही में हुए राज्य सभा की 58 सीटों पर हुए चुनाव हुए। इसमें सिर्फ दो मुसलमान ही राज्य सभा में पहुंच पाया और ये दोनों बीजेपी से जीते। मुख्तार अब्बास नकवी को झारखंड और एम जे अकबर को मध्य प्रदेश से टिकट देकर बीजेपी ने राज्य सभा पहुंचाया। सेक्यूलरिज़्म का दावा करने वाली कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बीएसपी, आरजेडी, जेडीयू समेत किसी भी दल ने एक मुसलमान को टिकट ही नहीं दिया। यूपी की बात करें तो चार करोड़ मुसलमानों पर सिर्फ राज्य सभा 4 सांसद रह गए हैं। ये आंकड़ा हैरत में डालने वाला है। सेक्यूलरिज़्म को बचाने के नाम पर मुसलमानों की नुमांइदगी ज़ीरो लेवल के करीब पहुंच गई है।
राजनीतिक दलों का हाल
नज़र डाले तो मौजूदा समय में सेक्यूलरिज़्म के नाम पर राजनीति करने वाले दलों की हालत खराब है। जिस बीजेपी का डर दिखाकर वो सालों से राजनीति कर रहे थे अब वो पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता में है। लोक सभा के चुनाव में यूपी का रिजल्ट सबसे ज़्यादा चौकाने वाला था। यहां एक भी मुसलमान चुनाव नहीं जीत पाया। दूसरी तरफ सेक्यूलर राजनीति करने वालों का भी सफाया हो गया। दिल्ली, बिहार को अगर छोड़ दें तो कई राज्यों में सेक्यूलर राजनीति धाराशाही हो गई हैं।
कांग्रेस
सेक्यूलरिज़्म के नाम पर 60 साल तक सत्ता रही कांग्रेस की बात करें तो कमान अब अघोषित रूप से राहुल गांधी के पास हैं। कांग्रेसियों की निगाह में फिलहाल राहुल गांधी सबसे बड़े नेता हैं जो कांग्रेस की नैया को पार लगाएंगे। पर हकीकत में तो उनकी दिशा और दशा का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। या यूं कहे कि राहुल गांधी अपनी बाज़ी में छोटी-छोटी बोली लगाकार एक बड़ी रकम हासिल कर लेते हैं पर फिर वो पूरी रकम एक ही बार में दांव पर लगा कर हार जाते हैं। ताज़ा उदाहरण लें तो राहुल गांधी ने किसान यात्रा के नाम पर खूब मेहनत की। अभी उनके नाम पर चर्चा शुरु हुई थी कि खून के दलाली वाला बयान सामने आ गया और राहुल गांधी जहां से चले थे वहीं फिर पहुंच गए। कांग्रेस की 60 साल की सत्ता में मुसलमानों ने सबसे ज़्यादा वोट और सपोर्ट किया बदले में उसे क्या मिला उसकी हकीकत सच्चर कमेटी की रिपोर्ट बयान करती है। आज के दौर में मुसलमान दलितों से भी पीछे हैं। न सिर्फ यूपी बल्कि कई राज्यों में मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। कांग्रेस के हालात सबके सामने हैं।
समाजवादी पार्टी
समाजवादी पार्टी यूपी की सत्ता में हैं। पार्टी के युवा सीएम अखिलेश का दावा है कि उन्होंने प्रदेश का जितना विकास किया है वो अब तक किसी ने नहीं किया। उनके इस दावे को पिछले चार साल में हुए दंगे ने धो डाला है। बिहार में नीतीश गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ने के समाजवादी पार्टी के फैसले ने भी सवाल खड़ा किया जिसका जवाब पार्टी के नेताओं के पास नहीं है। मुसलमान सपा के सबसे करीब था लेकिन अब हालात बदल गए हैं। सपा ने अपने मेनोफेस्टो में मुस्लिमों से कई वादे किए थे वो जमीन पर कहीं दिखाई नहीं देते। मुस्लिम आरक्षण पर सपा के पास कोई जवाब नहीं है। मुलायम सिंह भले ही अपने आप को सबसे बड़ा सेक्यूलर कहें लेकिन मुसलमानों का एक तबका अब सपा ने छिटक गया है। दूसरी तरफ पार्टी में अंदर की उठापटक ने सपा को दोराहे पर खड़ा कर दिया है। सपा के हाथों से न सिर्फ सत्ता जाती दिख रही है बल्कि पार्टी में हो रहे परिवारिक झगड़े के वजह से सपा के अस्तित्व पर भी सवाल खड़ा होने लगा है।
बहुजन समाज पार्टी
लोक सभा में करारी हार के बाद पार्टी को उम्मीद थी कि वह 2017 के विधान सभा चुनाव में वापसी करेगी। मौजूदा समय में बीएसपी में भगदड़ की स्थिति बनी हुई है। करीब दो दर्जन नेता, विधायक अब तक पार्टी छोड़ चुके हैं। खबरों पर यकीन करें तो दर्जनों बीएसपी नेता अब भी कई दलों के संपर्क में हैं। पार्टी में मुस्लिम चेहरे के नाम पर सिर्फ एक नसीमुद्दीन सिद्दीकी हैं, उनकी छवि मुसलमानों में बहुत अच्छी नहीं हैं। ये अलग बात है कि बीएसपी इस बार के चुनाव में मुसलमानों को ज़्यादा टिकट दे रही है पर अगर नुमाइंदगी की अगर बात करें तो नसीमुद्दीन सिद्दीकी को छोड़कर कोई दूसरा चेहरा नज़र नहीं आता हैं। पार्टी की दुविधा ये है कि वह अपने आप को विकल्प के तौर पर पेश तो कर रही है पर पार्टी नेताओं के चेहरे पर जीत के जज़्बे से ज़्यादा शंका दिख रही है। बीएसपी के लिए ये चुनाव करो या मरो की स्थिति वाला दिख रहा है।
आरजेडी और जेडीयू
बिहार में विधान सभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ जेडीयू, आरजेडी ने कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाया और चुनाव में सेक्यूलरिज़्म के नाम पर सफलता हासिल की। चुनाव में मुसलमानों ने सेक्यूरिज़्म के नाम पर इस गठबंधन को भारी समर्थन दिया। नीतीश सरकार के एक साल हो गए हैं, लेकिन इस सेक्यूलर सरकार ने मुसलमानों के लिए अब तक कोई बड़ा फैसला नहीं किया। चाहे मसला उर्दू टीचर का हो या फिर मुस्लिम बहुल्य अति पिछड़ा इलाका सीमांचल के विकास का। नीतीश सरकार का कोई भी फैसला मुसलमानों के हक में नहीं आया। हाल ही सीमांचल में बाढ़ से भारी तबाही हुई लेकिन नीतीश सरकार की तरप से फौरी मदद नहीं पहुंची। राज्य के चुनाव में आरजेडी और जेडीयू दोनों ने किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया। लालू ने तो बीजेपी में रहे राम जेठमलानी को टिकट दे दिया। नीतीश की सरकार में भी मुसलमानों की भागीदारी बहुत बेहतर नहीं हैं। शहाबुद्दीन के मसले पर नीतीश सरकार के रुख पर की लोगों से सवाल खड़ा किया। दरअसल इससे पहले कई माफिया नेताओं की ज़मानत पर सरकार चुप रही। कुल मिलाकर बिहार सरकार भी रडार पर खरी नहीं उतर रही है।
अन्य राजनीतिक दल
बात चाहे पश्चिम बंगाल की हो या फिर तमिलनाडु की। सेक्यूलर होने का दावा तो सभी करते हैं पर जब मुसलमानों कों हिस्सेदारी देने का बात आती है तो उनका संघी चेहरा सामने आ जाता है। केरल में भागीदारी बेहतर है उसकी वजह वहां पर मुस्लिम लीग है। असम में कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से समझौता न करके हारना बेहतर समझा। अब वहां बीजेपी की सरकार है। महाराष्ट्र में सेक्यूलर का दावा करने वाली कांग्रेस और एनसीपी अलग चुनाव लड़ी और बीजेपी की जीत मिली। ऐसे तमाम उदाहरण सामने हैं जहां सेक्यूलर दल खुद तो हारना बेहतर समझते हैं पर मुसलमानों की जीत को वो देखना चाहते।
अन्त में…
आज़ादी के 70 साल बाद मुल्क में सेक्यूलरिज़्म शब्द अब बेमानी का लगता है। राजनीतिक दल अपनी जाति, क्षेत्र और धर्म के हिसाब से अपने लोगों को फायदा पहुंचा रहे हैं। इन सब के बीच मुसलमान अब दोराहे पर खड़ा है। हां… इतना ज़रूर है कि मुसलमान अब इनसे सवाल कर रहा है और अपनी हिस्सेदारी की बात ज़ोर-शोर से उठा रहा है। सेक्यूलर राजनीति भले ही मौत के मुहाने पर खड़ी हो और देश में राष्ट्रवाद और धर्मवाद के नाम पर लोग इकठ्ठा हो रहे हो लेकिन इतना ज़रूर है कि अब मुसलमान इन सब के बीच अपने लिए जगह तलाश रहा है… शायद अब वो तरक्की का रास्ता यहीं से निकाले।
Kiya ker diye p m ji
Rone ka man kerta hai