ओबैद नासिर की फेसबुक वाल से
मेरी पत्रकारिता कौमी आवाज़ के रिपोर्टर कम उप सम्पादक के तौर पर 1988 में शुरू हुई थी। उस समय पद्मश्री इशरत अली सिद्दीकी अखाबर के मुख्य सम्पादक और श्री उस्मान गाणी सम्पादक थे। दिल्ली एडिशन के सम्पादक मोहन चिरागी साहब थे। आइये अपने सम्पादकों से अपका परिचय कराते हैं…
1- हयात उल्लाह अंसारी (पहले और फाउंडर एडिटर)
इन्हें नवीन उर्दू पत्रकारिता का बाबा आदम कहा जाता है। इन्होने उर्दू पत्रकारिता और उसकी भाषा शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन किये और इसे अंग्रेजी पत्रकारिता के समक्ष खड़ा किया। उर्दू को अरबी और फ़ारसी के साए से निकालकर उसका शुद्ध भारतीयकरण किया। कई शब्दों के हिज्जे (स्पेलिंग) बदली। उनकी सबसे बड़ी सिफत उनकी चौमुखी लड़ने की क्षमता थी। वह संघियों और मुज्संघियों दोनों से एक साथ लड़ते थे। कांग्रेस के दक्षिणपंथियों से भी उनकी जंग चलती रहती थी।
खुद चूँकि वरिष्ठ कांग्रेसी थे। बापू के यहाँ परवरिश हुई थी। उन्होंने ही उनकी शादी कराई थी। पंडित जवाहर लाल नेहरु से उनके घरेलु सम्बन्ध थे। इसलिए उनसे नीचे के किसी कांग्रेसी को वह सेठते नहीं थे। उर्दू के मुजाहिद थे उसके लिए वह गोविंद बल्लभ पन्त, सम्पूर्णानंद, सीबी गुप्ता जैसों से खुल कर लड़ते थे। अखबार की आर्थिक स्थिति खराब हुई तो केवल एक रूपया सैलरी पर सालों काम किया। गर्म शेरवानी नही बनवा पाए तो दिसम्बर-जनवरी की सर्दी में बदन पर अखबार लपेट कर ऊपर से खद्दर की शेरवानी पहन लेते थे। एक बेटी के इलाज के लिए पैसा नहीं जुटा पाए तो उसको खो दिया। बाद में विधान परिषद् और राज्य सभा के सदस्य बने।
2- पद्मश्री इशरत अली सिद्दीकी
यह भी फाउंडर ग्रुप में थे। हयात उल्लाह साहब के बाद एडिटर फिर चीफ एडिटर बने। पक्के गाँधी वादी आखिर समय तक सिर्फ खद्दर पहना। हमेशा कपड़े अपने हाथ से धो कर पहनते थे। दफ्तर में दिन भर जमे रहते थे। सिर्फ दो केले खाकर दिन गुज़ार देते थे। एक पिन भी फर्श पर पड़ी देखते तो न सिर्फ उठा के रख देते बल्कि स्टाफ को डांटते भी थे। पीएम इंदिरा गांधी जिनके साथ विदेशी दौरे पर गए तो चेयरमैन यशपाल कपूर ने उन्हें विदेशी मुद्रा की एक बड़ी रकम खर्च करने को दी। वापस आकर उसे वापस करने लगे तो कपूर साहब ने कहा… यह तो आपको खर्च के लिए दिया था। इशरत अली बोले इंदिरा गांधी जी के साथ गया। उनके साथ रहा उनके साथ खाया पिया। इसलिए कुछ खर्च ही नही हुआ।
यह हयातुल्लाह साहब की तरह चौमुखी तो नही लड़ते थे लेकिन उसूलों से समझौता भी नहीं करते थे। न कभी कलम का सौदा किया न अपने ज़मीर का। यह भी बहुत सरल और भारतीय उर्दू लिखते थे, बल्कि पुराने शब्दों और मोहावरों का खूब प्रयोग करते थे। हमेशा मोटे साइकिल को फटफटिया ही कहा और लिखा। गुड़ खाए गुलगुलों से परहेज़, सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली आदि मोहावरे बहुत लिखते थे, बल्कि कभी कभी तो सम्पादकीय शीर्षक ही बना देते थे।
इशरत अली साहब मालूमात का खज़ाना थे। हम जूनियर लोग खुद उनसे पूछने की हिम्मत नहीं कर पाते थे, तो खुद डेस्क पर आ कर कुछ पूछ लेते। फिर उस पर आधा घंटा लेक्चर देकर समझाते थे। हमेशा डांटते रहते थे जिसमे बुज़ुर्गों वाली मोहब्बत छुपी होती थी। जिसको न डांटते वह समझ था कि आज इशरत अली साहब उस से नाराज़ हैं।
3- उस्मान गनी साहब
सुना है कि तीसरे खलीफा हज़रत उस्मान गनी बहुत सीधे मुरववत दार और खुले हाथ वाले थे। अल्लाह ने यह सारी खूबियाँ उस्मान साहब में इकट्ठा कर दी थीं। न करना जानते ही नहीं थे। कोई अगर चिड़िया का दूध भी मांगे तो उस्मान साहब यह नहीं कह पाते थे कि चिड़िया दूध नहीं देती बल्कि कहते अच्छा देखिये कोशिश करता हूँ। उनके बारे में लोग कहते थे कि राजनीति से लेकर फल्कियात (स्पेस साइंस) तक के मामले में उस्मान साहब एक्सपर्ट हैं। उनकी नॉलेज गजब की थी। साहित्य, विज्ञान, धर्म, डिप्लोमेसी आदि कोई विषय ऐसा नहीं था जिस पर उनकी मज़बूत पकड़ न हो। उपर्युक्त तीनों सम्पादकों से अलग उस्मान साहब की भाषाशैली में साहित्यिक पूट होता था। उनकी नसर (गध्य) नज़्म का मज़ा देती थी। सम्पादकीय के लिये उर्दू के महान कवियों के अशआर कोट करने में बेमिसाल थे।
4- मोहन चिरागी
यह दिल्ली एडिशन के एडिटर थे। इसलिए हमारा ज़्यादा साथ नहीं रहा। जब दिल्ली जाता या वह लखनऊ आते तो मुलाक़ात होती थी। बहुत मोहब्बत और ख़ुलूस वाले आदमी थे। दिल्ली का स्टाफ उनकी तारीफें करता था। चूँकि एडिटोरियल एक ही होता था जो उस्मान साहब लिखते थे। इसलिए वह कॉलम लिखते थे लेकिन उनकी उर्दू लखनऊ वालों के मिज़ाज पर फिट नहीं बैठती थी। वह कौमी आवाज़ को जिंदा रखने के लिए आखिर दम तक जद्दोजेहद करते रहे।
आज इन चारों में से कोई हमारे बीच नहीं है लेकिन वह हम सबको कलम पकड़ना सिखा गए। उनका यह क़र्ज़ हम सब मरते दम तक अदा नहीं कर पायेगे।
(ओबैद नासिर सीनियर जर्नलिस्ट है और एक अखबार समूह में प्रधान संपादक हैं)