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22 Dec 2024, Sun

मशहूर उर्दू अदीब डॉ. शाहिद शोऐब का इंतक़ाल, किया गया सुपुर्द-ए-ख़ाक

फ़ैसल रहमानी

गया, बिहार
मशहूर उर्दू अदीब डॉ. शाहिद अहमद शोऐब का इंतक़ाल हो गया। वह तक़रीबन 80 साल के थे। जुमे की सुबह तक़रीबन 6:30 बजे उन्होंने गया के एम्स हॉस्पिटल में आख़िरी सांस ली। वह शहर के कठोकर तालाब इलाक़े के रहने वाले थे। बीमार होने की वजह से 4 दिन पहले उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया था।

डॉ शाहिद अपने पीछे बीवी, सात बेटे-बेटियों को छोड़ गए हैं। ग़ौरतलब है कि वह ख़ुसूसी तौर पर रांची के कर्बला चौक इलाक़े के बाशिंदा थे। लेकिन, 1964 में उनकी फ़ैमिली गया पहुंची तब से वे लोग लगातार वह यहीं रहने लगे।

सिपुर्द-ए-खाक
शहर के मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज की गवर्निंग काउंसिल के सदर रह चुके मरहूम डॉ. शोऐब को सनीचर की सुबह तक़रीबन 8:30 बजे गया शहर के कर्बला के पास क़ब्रिस्तान डिवीज़न में उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया।

उर्दू अदब से लगाव
उर्दू अदब में मरहूम शाहिद अहमद शोऐब की गहरी दिलचस्पी थी। वह शेर-ओ-शायरी में ख़ासा दिलचस्पी रखते थे। अदबी तख़लीक़ के अपने दौर में उन्होंने उर्दू में अदबी सामंतवाद का अपने हिसाब से हर सतह पर उसका पुरज़ोर मुक़ाबला किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने उर्दू अदब में हिंदी अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल को भी बढ़ावा देने की काफ़ी कोशिश की थी।

डॉ. शोऐब के नज़्मों के दो कलेक्शन ‘ले सांस आहिस्ता-आहिस्ता’ और ‘नाज़ुक है बहुत काम’ काफ़ी चर्चा में रहे। ‘ले सांस आहिस्ता-आहिस्ता’ झारखंड के आदिवासी समाज की तर्ज़-ए-ज़िंदगी की अक्कासी करते नज़्मों का कलेक्शन है। उर्दू अदब में उनकी गहरी रसाई और तख़लीक़ी सरगर्मी को देखते हुए उन्हें बिहार उर्दू एकेडमी के ऑपरेशन में भी उन्हें ज़िम्मेदारी दी गई थी। वह अकादमी के वाईस प्रेसिडेंट भी रहे थे।

ज़िंदगी का सफर
उनके बेटे सिब्तऐन शाहिदी के मुताबिक़ इससे पहले उनके वालिद मगध यूनिवर्सिटी में रीडर के पोस्ट पर रह चुके थे। मगध यूनिवर्सिटी में सर्वे रिसर्च सेंटर के असिस्टेंट डायरेक्टर के पोस्ट पर काम कर चुके मरहूम शोऐब कुछ वक़्त के लिए हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से भी जुड़े हुए थे। वह एंथ्रोपोलॉजी के दानिश्वर भी थे।

डॉ. शोऐब की शख़्सियत पर बाएं बाज़ू नज़रियात की छाप थी। उनकी रचनाओं के साथ-साथ दीगर इलाक़ों में भी उनके तर्ज़-ए-अमल पर कम्यूनिज़म का साया दिखता था। माना जाता है कि वह मार्क्सिज़म के असरात में आगे बढ़े अदीब-फ़र्क़ थे। वह हमेशा मुआशरे के इस्तहसाल-महरूम और नजरअंदाज क्लास के लिए खड़े होने की कोशिश करते रहे।

मरहूम डॉ. शाहिद अहमद शोऐब की एक मशहूर नज़्म:

कैसे-कैसे फूल खिले थे गई बहार,
फूलों में क्या-क्या चेहरे थे गई बहार।

एक पल तो तुम आन मिले थे गई बहार,
हम सदियों में फैल गए थे गई बहार।

ख़ुशबू की बौछार हुई थी चारों ओर,
रंगों के तूफ़ान उठे थे गई बहार।

सूरज, चांद, सितारे सब थे पांव तले,
तुम मेरे हमराह चले थे गई बहार।