ओबैदुल्लाह नासिर
लखनऊ, यूपी
क्या सीरिया के राष्ट्रपति सिर्फ एक साल के लिए सत्ता से नहीं हट सकते। इस बीच वहाँ अंतरिम सरकार बन जाय और UNO की देख रेख में चुनाव हों जिसमें बशर अल असद की पार्टी भी हिस्सा ले। यदि उन्हें बहुमत मिल जाय तो सत्ता फिर संभाल लें। जब वह रेफ्रेंडम नुमा चुनावों में 98% तक वोट पा जाते हैं, तो ऐसे चुनाव के बाद उनका बहुमत पाना कोई मुश्किल नहीं। सीरिया की समस्या का हल केवल संवैधानिक लोकतंत्र है। इसमें समाज के सभी वर्गों के अधिकारों की रक्षा हो और सभी की सत्ता में मुनासिब भागीधारी हो।
समस्या यह है की कुछ देशों के स्ट्रेटजिक हित सीरिया में ऐसा नहीं होने देना चाहते। ईरान और रूस बशर अल असद की सत्ता बनाये रखना चाहते। जबकि अमरीका और सऊदी अरब उन्हें सत्ता से हटाना चाहते हैं। सीरिया के अंदर भी बशर के सम्प्रदाय जो वहां अल्पसंख्यक हैं, के अलावा बाकी सभी वर्ग उनको सत्ता से बे-दखल करना चाहते हैं।
यह लड़ाई आज की नहीं लगभग पचास वर्ष पुरानी है। उनके पिता हाफ़िज़ अल असद रक्षा मंत्री थे। उन्होंने फ़ौज में अपने ही सम्प्रदाय के लोगों को भर दिया। इस बीच 1967 की अरब इज़राइल जंग हुई। इसमें सीरिया, मिस्र और जॉर्डन की संयुक्त सेना को इज़राइल ने 6 दिनों के अन्दर ही तहस नहस कर दिया। तीनों देशों के राष्ट्रपति अरब जनता में बेहद अलोकप्रिय हो गए।
मिस्र के जमाल अब्दुल नासिर की शख्सियत न केवल मिस्र बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ऊंची थी इस लिए उनकी सत्ता को कोई खतरा नही हुआ। हालांकि की शिकस्त के बाद उन्होंने इस्तीफा देने का एलान किया। लेकिन उनके एलान के साथ ही लाखों लोगों ने काहिरा में राष्ट्रपति भवन घेर लिया और उस समय तक नहीं हटे जब तक नासिर ने जनता के सामने आ कर अपना इस्तीफ़ा वापस लेने का एलान नहीं कर दिया।
उधर जॉर्डन में शाह हुसैन ने जंग में खुद शिरकत की थी और पूरे 6 दिन तक एक सिपाही की तरह मोर्चे पर मौजूद रहे। जिससे उनकी धाक बढ़ गयी। दूसरे कथित तौर से वह चूँकि हज़रत मोहम्मद (स) के सीधे वंशज से हैं। इसलिए भी जनता में उनकी और उनके परिवार की बड़ी इज्ज़त है। अतः वह भी अपनी सत्ता बचा ले जाने में सफल रहे।
सीरिया के राष्ट्रपति नूरी अल अताशी अपनी सत्ता नहीं बचा पाए। उनके रक्षा मंत्री हाफ़िज़ अल असद ने सेना में अपने सम्प्रदाय की सिपाहियों और अफसरों की मदद से उनकी तख्ता पलट दिया, और खुद राष्ट्रपति बन बैठे। उनके खिलाफ बगावत के सुर उभरने लगे तो पूरे देश में गिरिफ्तारियों का बड़े पैमाने पर सिलसिला शुरू हुआ। कहा जाता है कि केवल गोम्स नामी शहर में सेना ने एक सप्ताह में चालीस हज़ार लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।
इस प्रकार देखा जाय तो असद परिवार के खिलाफ सीरिया की जनता में आक्रोश बहुत पुराना है। गाहे बगाहे बगावत की कोशिशें होती रही हैं। जिसे सेना द्वारा बेदर्दी से कुचलवा दिया गया। हाफ़िज़ असद जब बूढ़े और बीमार रहने लगे तो उन्होंने इंग्लैंड में डाक्टरी पढ़ रहे अपने बेटे बशर अल असद को सत्ता सौंप दी। इंग्लैंड के खुले और लोकतान्त्रिक माहौल में पले-बढ़े बशर अल असद से उम्मीद थी कि वह अपने देश में सियासी सुधार लागू करके वहां सही अर्थों में जम्हूरियत और संविधान का राज स्थापित करेंगे। पर वह भी अपने बाप और अरब देशों के अन्य तानाशाहों और बादशाहों की तरह सत्ता पर एकाधिकार बनाये रखें। फर्जी रेफ्रेंडम द्वारा जम्हूरियत के नाम पर दुनिया और अपने देश की जनता की आँखों में धूल झोंकते रहे।
अरब स्प्रिंग के दौर में जब ट्युनिशिया समेत सभी अरब देशों में तानाशाहों के खिलाफ अवाम सडकों पर उतर आई। सीरिया की जनता भी सड़कों पर निकल पड़ी। इसे सेना द्वारा कुचल दिया गया। जब जनता को लगा कि वह केवल धरना प्रदर्शन से बशर को सत्ता से नहीं हटा सकती तो उस ने फ्री सीरियन आर्मी (FSA) नाम से अपनी मिलिशिया खड़ी कर ली और बशर की सत्ता से टकरा गए।
इस मिलिशिया को सऊदी अरब व अन्य अरब देशों समेत अमरीका की भी हिमायत हासिल थी। जहां से उसे धन और असलहा दोनों मिल रहा था। मिलिशिया को भारी सफलता मिलने लगी और सीरिया के अधिकाँश भागों पर उस का कब्जा हो गया। बशर अल असद की निश्चित हार देखते ही रूस और ईरान उनकी मदद को आ गए। जिससे जंग का पासा पलट गया। रूस की अंधाधुंध बमबारी से FSA के पैर उखाड़ने लगे।
इसी बीच ISIS नामी ठगों का गिरोह इराक में उभरा। इसने न केवल भारी तबाही मचाई बल्कि दरिंदों से अधिक अमानवीयता दिखा कर दुनिया को हतप्रभ कर दिया। इसने सीरिया तक अपना जाल फैला लिया। अब सीरिया में ISIS, अमरीका, रूस, सऊदी अरब, ईरान और तुर्की सब एक दुसरे से गुत्थम गुत्था हैं। डोर कुछ ऐसी उलझी है कि इसका एक सिरा दिखाई ही नहीं देता। इस में पिस रहे हैं सीरिया के बेगुनाह मासूम अवाम।
यह सिलसिला कब खत्म होगा कब सीरिया में शान्ति बहाल होगी कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अब फैसला बशर अल असद के हाथ में भी नहीं रह गया। वह कठपुतली बन के रह गए हैं। फैसला अमरीका, सऊदी अरब, तुर्की और FSA एक ओर और रूस, ईरान व असद दूसरी ओर के बीच किसी समझौते से ही सम्भव है। जो फिलहाल दूर बहुत दूर दिखाई दे रहा है। तब तक सीरिया में मौत का तांडव जारी रहेगा।
कब नज़र में आएगी बेदाग़ सब्ज़े की बहार ।
खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद ।।
(ओबैदुल्ला नासिर वरिष्ठ पत्रकार है और कई मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। अभी लखनऊ में रह रहे हैं और राजनीतिक, सामाजिक मुद्दों पर बेबाकी से लिखते हैं।)