गुरदीप सिंह सप्पल की फेसबुक वाल से
नई दिल्ली
ताकि सनद रहे!
सोनिया गांधी 14 मार्च, 1998 को कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष चुनी गयी थीं। शायद ही आज लोगों को याद हो कि उस वक़्त कांग्रेस की सरकारें सिर्फ़ चार राज्यों में बची थीं- मिज़ोरम. नागालैंड, मध्य प्रदेश और उड़ीसा। बाक़ी सभी राज्यों में और केंद्र में पार्टी हार चुकी थी। देश उन दिनों वाक़ई लगभग ‘कॉंग्रेस मुक्त’ हो चुका था। पार्टी टूट टूट कर बिखर रही थी। अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, माधव राव सिंधिया, जीके मूपनार, ममता बैनर्जी, कमलनाथ, शीला दीक्षित, बंगारप्पा, पी चिदम्बरम जैसे दिग्गज पार्टी छोड़ चुके थे। काँग्रेस में कई विभाजन हो गए थे:-
1. अखिल भारतीय इंदिरा कॉंग्रेस (तिवारी)
2. कर्नाटक कॉंग्रेस पार्टी
3. तमीझहग राजीव कॉंग्रेस
4. कर्नाटक विकास पार्टी
5. अरुणाचल कॉंग्रेस
6. तमिल मनीला कॉंग्रेस
7. मध्य प्रदेश विकास कॉंग्रेस
8. आल इंडिया तृणमूल कॉंग्रेस
9. तमिलनाडु मक्कल कॉंग्रेस
10. हिमाचल विकास कॉंग्रेस
11. मणिपुर स्टेट कॉंग्रेस पार्टी
12. गोवा राजीव कॉंग्रेस पार्टी
13. अरुणाचल कॉंग्रेस (मिथी)
14. अखिल भारतीय इंदिरा कॉंग्रेस (सेक्युलर)
15. महाराष्ट्र विकास अघाडी
टूट का ये सिलसिला सोनिया गांधी के बागडोर सम्भालने के बाद ही थम सका। पंद्रह में से बारह पार्टियाँ फिर से कॉंग्रेस में आ मिलीं। केवल तृणमूल कॉंग्रेस का स्वतंत्र वजूद बरक़रार रहा। जबकि मणिपुर स्टेट कॉंग्रेस का RJD में और गोवा राजीव कॉंग्रेस का बाद में NCP में विलय हो गया। तमिल मनीला कॉंग्रेस पार्टी स्थगित कर दी गयी।
सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के कुछ ही महीनों में कॉंग्रेस फिर से चुनाव जीतने लगी। 1998 में ही दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसकी सरकार बन गयी और पार्टी फिर से धड़कने लगी। कॉंग्रेस में गांधी परिवार के महत्व समझने के लिए इस पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है। दरअसल ऐसा नहीं है कि गांधी परिवार का पार्टी पर हमेशा से ऐसा ही वर्चस्व रहा हो। सच तो ये है कि आज़ादी के बाद कॉंग्रेस के अध्यक्ष पद का कार्यभार 15 लोगों ने सम्भाला है:-
- पट्टाभी सीतारमैय्या
2. पुरषौत्तम दास टंडन
3. जवाहर लाल नेहरु
4. यू एन धेबर
5. इंदिरा गांधी
6. नीलम संजीवा रेड्डी
7. के कामराज
8. एस निजलिंगप्पा
9. जगजीवन राम
10. शंकर दयाल शर्मा
11. देवकांत बरुआ
12. राजीव गांधी
13. पी वी नरसिम्हा राव
14. सीताराम केसरी
15. सोनिया गांधी
ये सभी बहुत बड़े नेता थे, क़द्दावर व्यक्ति थे। लेकिन इनमें से बहुत से नेताओं ने पार्टी छोड़ दी या पार्टी में विघटन किया, ये थे:-
1. पुरुषोत्तम दास टंडन
2. नीलाम संजीवा रेड्डी
3. के कामराज
4. एस निजलिंगप्पा
5. जगजीवन राम
6. देवकांत बरुआ
इन सभी नेताओं ने कॉंग्रेस पार्टी पर अपना वर्चस्व बनाने की कोशिशें की। पार्टी की राजनीतिक विचारधारा और फ़िलासफ़ी को नेहरु-इंदिरा गांधी की विचारधारा के विपरीत खड़ा करने की कोशिश की। लेकिन वे देश की जनता पर अपना प्रभाव न डाल सके। जनता ने हमेशा नेहरु- गांधी विचारधारा वाली कॉंग्रेस का साथ दिया और उन्ही के नेतृत्व वाली कॉंग्रेस मुख्य कॉंग्रेस बनती रही। पार्टी के बाक़ी सभी अवतार वक़्त की गर्त में गुम हो गए। निस्सन्देह, इसमें नेहरु-गांधी परिवार का क़सूर तो नहीं ही बनता कि उनका विज़न जीतता रहा और लोकतंत्र में फलता फूलता रहा।
राजीव गांधी के पश्चात सोनिया गांधी लगभग आठ सालों तक पार्टी से दूर रहीं। इस दौरान पार्टी का नेतृत्व पी वी नरसिम्हा राव जैसे दिग्गज के हाथों में था जो प्रधान मंत्री भी थे और कॉंग्रेस अध्यक्ष भी। ये कहना ग़लत होगा कि इस दौरान सोनिया गांधी ने परदे के पीछे से पार्टी पर नियंत्रण बनाए रखा था। राजनीति में पाँच साल बहुत ही लम्बा वक़्त होता है वर्चस्व बनाने के लिए। लेकिन हुआ उलटा। नरसिम्हा राव के इस कार्यकाल में पार्टी पूरी तरह बिखर गयी।
तब सोनिया गांधी ने पार्टी को पुनर्जीवित किया। वे न सिर्फ़ कॉंग्रेस को वापिस सत्ता में लायीं, बल्कि उसकी फ़िलासफ़ी और नीतियों पर अपनी अमिट छाप भी छोड़ी। ये सोनिया गांधी का योगदान था कि UPA सरकार अधिकार आधारित गवर्नन्स और पारदर्शिता के पक्ष काम कर सकी। यही कारण है कि सोनिया गांधी का कॉंग्रेस में इतना महत्व है।
राहुल गांधी इसी पृष्ठभूमि में कॉंग्रेस अध्यक्ष का कार्यभार संभाल रहे हैं। अब ये उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे पार्टी में फिर से न सिर्फ़ जान फूंकें, बल्कि पार्टी को प्रगतिशील, उदार और धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर आगे ले जाएँ। साथ ही साथ, पार्टी को भी और देश को भी ऐसी ही सोच का क़ायल बनाएँ।
(गुरदीप सिंह सप्पल राज्य सभा टीवी के सीईओ रह चुके हैं। वह मीडिया में कई सालों से सक्रिय हैं)