आज़मगढ़, यूपी
बाटला हाउस में मारे गए मो० आतिफ और साजिद के गांव संजरपुर के लोगों ने कहा कि जिस तरह से बाटला हाउस इनकाउंटर फर्जी था उसी तरह से ‘बाटला हाउस’ फिल्म भी फर्जी है। स्वतंत्रता दिवस को इसे रिलीज़ कर न केवल साझी शहादत की ऐतिहासिक विरासत को कलंकित करने का प्रयास किया जा रहा है बल्कि यह एक समुदाय, एक जिले और एक गांव को राष्ट्र विरोधी साबित करने की कोशिश है। इस बीच रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने मंच के स्थानीय सहयोगियों के साथ संजरपुर का दौरा किया और 15 अगस्त को रिलीज़ होने वाली फिल्म ‘बाटला हाउस’ पर ग्रामवासियों से चर्चा की।
ग्रामवासियों ने एक स्वर में कहा कि बाटला हाउस इनकाउंटर दस साल बाद यह फिल्म एक बार फिर उनके ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसी है। बाटला हाउस इनकाउंटर मामले में अभियुक्त बनाए गए मो० आरिज़ खान का मुकदमा न्यायालय में विचाराधीन है और उसी इनकाउंटर के आधार पर जयपुर, अहमदाबाद व अन्य धमाकों के मामले में गांव और जनपद से दर्जनों लड़कों को गिरफ्तार किया गया था, उन मुकदमों की सुनवाई भी अंतिम चरण में है। ऐसे में यह फिल्म मुकदमों के नतीजों को प्रभावित करेगी।
इस आशंका को इस बात से भी बल मिलता है कि ‘आज़मगढ़ की माटी’ नामक भोजपुरी फिल्म पर खुफिया एंव सुरक्षा एजेंसियों ने अघोषित पाबंदी लगा दी थी जिसमें आज़मगढ़ का पक्ष दिखाया गया था। उक्त फिल्म का जनता या किसी पक्ष द्वारा विरोध भी नहीं किया गया था। ऐसे में ‘बाटला हाउस’ फिल्म के ट्रेलर आने के बाद से ही विरोध के स्वर के बावजूद एजेंसियों की उदासीनता से इस संदेह को बल मिलता है कि फिल्म में जांच एजेंसियों के पक्ष को न्योयोचित करार देने का प्रयास किया गया है।
शादाब अहमद उर्फ मिस्टर का कहना है कि बाटला हाउस इनकाउंटर के बाद से गांव और जनपदवासी लगातार मांग करते रहे हैं कि बाटला हाउस इनकाउंटर की सुप्रीम कोर्ट के किसी सेवा निवृत्त जज से न्यायायिक जांच कराई जाए। इस मांग के समर्थन में कई बार विरोध प्रदर्शन भी किए गए लेकिन इसे हर बार ठुकरा दिया गया।
यहां तक कि मानवाधिकार आयोग के दिशा निर्देशों की अवहेलना करते हुए कथित इनकाउंटर के बाद उसकी मजिस्ट्रेरियल जांच भी नहीं करवाई गई और पूरी तफतीश दिल्ली की उसी स्पेशल सेल को सौंप दी गई जिस पर फर्जी इनकाउंटर में हत्या करने का आरोप था और उसके विवेचक संजीव यादव स्वयं घटना स्थल पर मौजूद थे। फिल्म निर्माताओं ने इनकाउंटर या धमाकों के आरोपियों और उनके परिजनों का पक्ष जानने का कोई प्रयास नहीं किया इससे लगता है कि प्रस्तावित फिल्म पुलिस की कहानी के आधार पर ही बनाई गई है जिसकी सत्यता शुरू से ही संदिग्ध है।
उन्होंने कहा कि इस फिल्म के माध्यम से ठीक उसी तरह का माहौल बनाने की कोशिश की जाएगी जैसा कि बटला हाउस इनकाउंटर के तुरंत बाद किया गया था। उन्हें वह खबर अब भी अच्छी तरह याद है जब इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया ने आतिफ और सैफ के बैंक खातों से बहुत कम समय में तीन करोड़ रूपयों का लेनदेन होना बताया था। बाद में जब उनके खातों की पड़ताल की गई तो दोनों खातों में स्कॉलरशिप के मात्र 22-23 सौ रूपये ही जमा थे और विगत सात सालों से जिसे संचालित नहीं किया गया था।
मो० शाकिर का कहना है कि फिल्म के ट्रेलर में एक लड़के को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि उसने ज़ुल्म के खिलाफ और इंसाफ के लिए उन कार्रवाइयों को अंजाम दिया था, क़ुरआन उन्हें यह शिक्षा देता है। उन्होंने कहा कि सुनियोजित साज़िश के तहत मुसलमान और क़ुरआन को बदनाम करने केलिए इस तरह का दुष्प्रचार हिंदुत्ववादी संगठन पहले भी करते रहे हैं।
इससे फिल्म निर्माता की मंशा को समझा जा सकता है। यह न केवल विचाराधीन मुकदमों को प्रभावित करेगा बल्कि विभिन्न बहानों से अल्पसंख्यकों के खिलाफ लिंचिंग जैसी संगठित घटनाओं में इज़ाफे का कारण भी बनेगा। ट्रेलर में न्यायिक जांच की झूठी कहानी से देश और दुनिया को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है और यह जताने का प्रयास किया जा रहा है कि इस मामले की निष्पक्ष जांच करवाकर इंसाफ के मापदंडों को पूरा किया गया था। सच्चाई बिल्कुल इसके विपरीत है। हमारी कोई बात नहीं सुनी गई और कानून से परे जाते हुए जांच इस बिना पर नहीं करवाई गई कि उससे पुलिस का मनोबल गिरेगा।
सालिम दाऊदी ने कहा कि फिल्म के ट्रेलर में इनकाउंटर की घटना अंजाम देने के बाद एक सवाल के जवाब में हीरो कहता है कि मारे गए लड़के छात्र थे लेकिन बेकसूर नहीं। इससे इस बात को बढ़ावा मिलता है कि कोई पुलिस अधिकारी खुद से यह तय कर सकता है कि कौन अपराधी है और कौन बेगुनाह। इतना ही नहीं, वह किसी को अपराधी घोषित करके उसकी जान भी ले सकता है। यह न केवल असंवैधानिक और गैर कानूनी है बल्कि पुलिस को न्यायालय की भूमिका में लाने के बराबर है।
उन्होंने कहा कि फिल्म से एक बार फिर उसी तरह का माहौल बनने की पूरी आशंका है जो बाटला हाउस इनकाउंटर के समय बनाया गया था। उस समय आज़मगढ़ पर ‘आतंकगढ़’ और ‘आतंक की नर्सरी’ का टैग लगा। इसके चलते आज़मगढ़ के छात्रों, व्यापारियों और कामगारों को महानगरों में किराए पर जगह मिलना तक मुश्किल हो गया था। जनपदवासियों का जीवन दूभर हो गया था। यह फिल्म दोबारा वही हालात पैदा करेगी। इन आशंकाओं के मद्देनज़र इस फिल्म के प्रदर्शन पर तत्काल रोक लगाई जाए।