डा निज़ामुद्दीन ख़ान
राजनीति ही वह मास्टर चाबी है जिससे सारी समस्याओं के बंद दरवाज़ों को खोला जा सकता है। दलित समाज की सामाजिक, राजनैतिक चेतना को झिझोड़ने वाले बाबा साहब अम्बेडकर के ये शब्द पता नहीं कितना मुस्लिम समाज को प्रभावित करते हैं? बाबा साहब का यह सन्देश जितना दलित समाज के लिए महत्वपूर्ण है, उससे कहीं अधिक मुसलमानों के लिए है। कारण बिल्कुल स्पष्ट है दलित समाज की वर्तमान समय में चाहे जितनी बड़ी समस्यायें हों लेकिन उसके समक्ष अस्तित्व, सुरक्षा और पहचान की उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितनी बड़ी मुस्लिम समाज की है। एक प्रकार से मुख्य मोर्चे पर मुस्लिम समाज को खड़ा करके बहुसंख्यकवादी कूटनीति अखण्ड हिन्दुत्व के बीच कहीं-कहीं दलित समाज को स्थान दे रही है। इसे दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मुसलमानों को आगे करके देश की साम्प्रदायिक शक्तियां दलितों को भी कम से कम फ़ौरी तौर पर ही सही सुरक्षा का आभास दे रहीं हैं। कभी कभी तो ये मुसलमानों के सामने दलितों को खड़ा करने में भी सफल हो जाती हैं। अतः मुसलमानों की राजनैतिक चेतना का प्रश्न अत्यंत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है।
मुसलमानों के लिए यह बड़ा प्रश्न है कि धर्म के आधार पर उनकी एकता का बनता बिगड़ता समीकरण क्या अब तक उन्हें राजनैतिक रूप से प्रभावशाली बना पाया है या नहीं? मुस्लिम समाज की राजनैतिक एकता का स्वरूप बिल्कुल मुसलमानों की धार्मिक एकता के स्वरूप से मिलता जुलता है। अल्पसंख्यक समुदाय के नाते गहरी असुरक्षा की भावना ने मुसलमानों की राजनैतिक चेतना का बिल्कुल गला घोंट दिया है। समाज का जो भी जैसा भी राजनैतिक नेतृत्व है और जो धार्मिक नेतृत्व है उसने राजनैतिक चेतना को धार्मिक चेतना का पर्याय मान लिया है। यही कारण है कि विकास के प्रश्न… पीछे छूटते जा रहे हैं।
अपने धर्म का अपहरण कर लिए जाने की आशंकाओं ने मुसलमानों के अन्य राजनैतिक प्रश्नों को बहुत नीचे दबा दिया है। इस बात का भलीभांति अनुमान होते हुए भी यदि धर्म के आधार पर मुसलमानों की एकता को आवश्यक मान लिया जाये तो इसके विपरीत गैर-मुस्लिमों की भी धर्म के आधार पर एकता अवश्यंभावी है। इस धार्मिक ध्रुवीकरण का कोई भी स्वरूप मुसलमानों के लिए लाभकारी नहीं हो सकता। मुसलमानों की राजनैतिक चेतना का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसने धर्म से थोड़ा सा भी अलग हटकर राजनैतिक चेतना के किसी स्वरूप की कल्पना ही नहीं की। इसके अलावा इस धार्मिक चेतना को भी राजनैतिक चेतना में बदल पाने का उसके बीच कभी कोई न प्रयास हुआ और न आज़ादी के बाद कोई परिणाम सामने आ सका।
अब प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी कोई राजनैतिक चेतना की घुट्टी मुसलमानों को पिलाई जा सकती है जो उसके धर्म के मामलों को थोड़ा पीछे करके उसकी मूलभूत चुनौतियों को आगे कर दे। अगर ऐसा कभी संभव हो पाया तो यही भारतीय मुस्लिम समाज की मुक्ति का प्रथम द्वार होगा। जिस दिन भारत का मुसलमान यह भलीभांति जान जायेगा कि सदैव मज़बूत हाथों में ही सारी विरासतें सुरक्षित रह सकती हैं चाहे वे धर्म की हों समाज या संस्कृति की। दुर्बल हाथ किसी भी विरासत को संभाल कर रख पाने में में समर्थ नहीं होते। चाहे वे कितने ही शक्तिशाली दर्शन, सिद्धांत और विश्वास की विरासत के मालिक हों।
प्रश्न यह भी है कि भारतीय राजनीति में मुसलमानों की राजनैतिक एकता का स्वरूप कैसा होना चाहिए? इसका सीधा उत्तर है कि उसे पूरे भारतीय राजनैतिक परिदृश्य पर नज़र दौड़ानी होगी। भारत के बहुसंख्यक समाज की धार्मिक एकता पर आधारित राजनीति को आंशिक रूप से सफल होने में कितना अधिक समय लगा। देश-प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य में धर्मों की एकता की राजनीति को जातीय एकता के समीकरणों ने गंभीर चुनौती दी है। जातीय समीकरणों की राजनीति भारत की सच्चाई बनकर सामने आई है।
राजनैतिक विश्लेषकों का तो यहाँ तक मानना है कि शक्तिशाली जातीय समूहों ने राजनैतिक विचारधाराओं पर भी सत्ता भागीदारी के लिए प्रभुत्व जमा लिया है। जैसे पश्चिम बंगाल में माकपा, उ.प्र. में सपा, बसपा, बिहार में राजद, जदयू और भी बहुत से उदाहरण सामने हैं। क्या मुसलमानों की धार्मिक एकता के मार्ग में जातीयता के जो बीज सोये पड़े हैं बाधा नहीं बनेंगे? अतः लोकतंत्र में धार्मिक एकता पर आधारित राजनीति की दिशा का मार्ग कांटों भरा है। इसके बावजूद राजनीति के विषय के चलते मुसलमानों के बीच बार बार धार्मिक एकता की आवाज़ें बुलन्द की जाती हैं। जिसके पीछे समाज की दशा सुधारने के बजाय कट्टरवादी धार्मिक नेतृत्व की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं ही अधिक दिखाई देती है। भारत में मुसलमानों की राजनैतिक एकता का लक्ष्य मुसलमानों के राजनैतिक नेतृत्व द्वारा राजनैतिक प्रश्नों के आधार पर ही पूरा होगा। यह राजनैतिक लक्ष्य दलित मज़दूर किसान और अन्य उत्पीड़ित वर्गों के संघर्षों के साथ मुसलमानों की मूलभूत आकांक्षाओं उनकी सुरक्षा विकास के बीच सामंजस्य बनाकर ही पूरा किया जा सकता है।
मुसलमान जब तक इस देश में केवल अपने हिस्से की ज़मीन मांगते रहेंगे और अपने सरोकारों को सीमित करने के मार्ग पर चलते रहेंगे उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। मुसलमानों की राजनैतिक एकता का लक्ष्य वंचित समूहों के संघर्षों के बीच खड़े होकर ही प्राप्त किया जा सकता है। मुसलमानों को अपने इस प्रयोग के लिए किसी अन्य राजनैतिक विचारधारा या सिद्धांत में झांकने की आवश्यकता नहीं बल्कि उन्हें अपने ही पैगम्बर हज़रत मुहम्मद सल्ल. की प्रारंभिक समय की ‘मदीना चार्टर‘ की अवधारणा में इसका मार्गदर्शन मिल जायेगा। आजादी के बाद छोटी छोटी राजनैतिक पार्टियां मुसलमानों के बीच बनाने के अनेकों प्रयोग हुए हैं। मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, एमआईएम, पीस पार्टी, एनएलपी. ओलमा कौंसिल, वेलफेयर पार्टी, परचम पार्टी, एसडीपी और न जाने कितने मुस्लिम राजनैतिक दल बने लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
इसे भारतीय राजनीति का दोगलापन कहें या मुस्लिम नेतृत्व की अदूरदर्शिता कि इन दलों को मुस्लिम राजनैतिक दल की संग्या इसलिए दी गई इनका नेतृत्व मुस्लिम है। परन्तु ऐसा लेबल उन राजनैतिक दलों के ऊपर नहीं चस्पां किया गया जिनका नेतृत्व गैर-मुस्लिम है। इस आधार पर उन्हें भी हिंदू राजनैतिक दल कहा जाना चाहिए था। इसमें भी मुस्लिम नेतृत्व के लिए विचारणीय बात यह है कि वे प्रारंभ से ही एकमात्र मुस्लिम प्रतिबद्धता के लिए इतने अधिक मुखर हो जाते हैं कि मुख्य धारा का कोई भी बड़ा विषय उनके लिए प्रमुख विषय नहीं रह पाता। इसके पीछे की मानसिकता सिवाय इसके क्या हो सकती है कि मुस्लिम प्रतिबद्धता का व्यापक प्रचार प्रसार करके वे कम समय में अपना आधार बड़ा कर लेंगे। इसे धैर्य का अभाव और लम्बे संघर्ष से कतराना ही कहा जा सकता है। उन्हें सोचना होगा कि समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी अपने जाति समूह का भले कितना ही कल्याण करें लेकिन इसका ढिंढोरा नहीं पीटतीं नेतृत्व की जाति स्वतः उस जाति समूह को निकट ले आती है।
मुसलमानों के राजनैतिक नेतृत्व के सामने यह भी बड़ा संकट है कि उसके पास राजनैतिक संघर्षों की कोई ऐसी परंपरा नहीं है जो जो धार्मिक प्रश्नों से अलग हो। यह मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा मानसिक दिवालियापन है कि जितना बड़ा जमावड़ा वे धार्मिक महत्व के मुद्दों पर कर लेते हैं राजनैतिक मुद्दों पर उन्हें सांप सूंघ जाता है। उनकी इस मानसिकता ने उनके राजनैतिक नेतृत्व को न केवल बौना कर दिया है बल्कि उसे धार्मिक नेतृत्व का आश्रित बना दिया है. जिस दिन मुस्लिम समाज अपनी वास्तविक चुनौतियों को समझ लेगा उस दिन उसकी राजनैतिक एकता का एक नया सूरज उदय होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक एक राजनीतिक दल से जुड़ें हैं)