नई दिल्ली
पड़ोसी मुल्क म्यांमार में हालात इस कदर खराब हो चुके हैं कि वहां रोहिंग्याई मुसलमानों का रहना मुश्किल हो रहा है। दंगे, मारकाट से भाग कर ये मुसलमान दुनिया के कई मुल्कों में शरण ले रहे हैं। भारत में भी कई शहरों में रोहिंग्याई मुसलमानों ने शरण ले रखी है। मुल्क की राजधानी दिल्ली में करीब 10 हज़ार रोहिंग्या मुसलमान रह रहे हैं। दिल्ली में इनकी तीन-चार जगह बस्तियां आबाद की गई हैं। इनमें से कालिंदी कुंज के पास कंचनकुंज सबसे पुरानी बस्ती है। सबसे अहम बात यह है कि जिस प्रकार भारत में अन्य शरणार्थियों को सुविधाएं मिली हुई हैं वैसी सुविधाएं रोहिंग्या मुसलमानों को नहीं मिली हैं।
म्यांमार से आए रोहिंग्या मुसलमानों के हालात बेहद खराब हैं। तीस साल की तस्लीमा यह नहीं जानती कि उसका बेटा किस तारीख को पैदा हुआ। हालांकि वह यह जानती है कि बेटा 18 या 20 दिन का हो चुका है। सफदरजंग अस्पताल से कोई पर्ची नहीं मिली। अस्पताल प्रशासन का कहना था कि तस्लीमा दूसरे देश की रहने वाली है इसलिए उसे बच्चे का प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता। दो साल पहले वह अपने वतन म्यांमार से बांग्लादेश होती हुई दिल्ली पहुंची। सिर्फ तीस साल की उम्र में चार बच्चों की मां बन चुकी तस्लीमा अपने पति और बच्चों के साथ किसी तरह जान बचाकर भारत आ तो गई लेकिन यहां जिन हालातों में जी रही है वह जीते जागते मरने जैसे हैं।
कंचनकुंज में करीब 11 सौ गज की जमीन पर 300 परिवार रह रहे हैं। ये लोग खाने से लेकर रोजगार तक की समस्या से जूझ रहे हैं। तस्लीमा का पति पास के पार्क में काम करता है। तीस साल के शाबर के परिवार में छह लोग हैं और कमाने वाला अकेला उसका पति है। वह दिहाड़ी मजदूर है। सूफिया अख्तर बताती है कि उसका पति किराये का ऑटो चलाता है। उसका पति कबीर अहमद का कहना है कि यूएन की ओर से हमें वो सब नहीं मिला जो दूसरे मुल्कों के शरणार्थियों को मिला है। इन्हें यहां रहने के लिए जमीन जकात फाउंडेशन ने दी है। अब एमसीडी यहां के कुछ घरों से जमीन खाली करवा रही है। कबीर अहमद का कहना है कि शरणार्थी कार्ड होने के बावजूद भी हमें किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं मिल रही।
यहां आसपास के कुछ एनजीओ दवा और कुछ ज़रूरी सामान बांटने के लिए ज़रूर आते हैं लेकिन किसी बड़ी बीमारी में इन्हें कोई सहायता नहीं मिल रही है। यहां रहने वाले मोहम्मद हारून बताते हैं कि अपने मुल्क में हम सभी लोग या तो किसान थे या कारोबारी। वहां जिनके पास ज्यादा पैसा था वे मलेशिया या सउदी अरब चले गए। बहुत से लोग भारत आ गए। इनके किसी के पास रोजगार नहीं है। नीचे की ओर गड्ढे में इनके घर बने हैं। बरसात में यहां पानी भर जाता है और सांप निकलते हैं। अभी तक सांप काटने से यहां तीन बच्चों की मौत हो चुकी है।
यहां के हालात को गौर से देखें तो नंगे बच्चे, ठसे हुए सामान, प्लाईबोर्ड की दीवारों से बना ऐसा कमरा जिसमें लेटना भी मुश्किल है। इन कमरों में अंधेरा और बदबू ऐसी की थोड़ी देर रुकना भी मुश्किल है। यहां आसपास कोई बाज़ार नहीं है और न ही कोई अस्पताल है।
यहां रह रही सूफिया परात में कुछ पत्ते बीन रही है। ये पत्ते लौकी की बेल के पत्ते हैं। बताती है कि आज चावल के साथ यह पत्ते उबाल कर बनाए जाएंगे। ज्यादातर इनके घरों में सिर्फ उबला चावल और लौकी के पत्ते बनते हैं। मोहम्मद हारून का कहना है कि हमें कुछ नहीं चाहिए सिर्फ रहने को जमीन मिल जाए उसपर मकान हम खुद बना लेंगे।
रोहिंग्या मुसलमानों की बस्ती में काम कर रहे सोशल वर्कर मोहम्मद अनीसुर रहमान का कहना है कि अगर फंड्स लेने की बात होती है कि म्यांमार से आए मुसलमानों पर कौन-कौन सी संस्था काम कर रही है तो करीब सौ संस्थाएं सामने आ जाती हैं, इनके नाम पर न जाने कितने एनजीओ पैसा कमा रहे हैं लेकिन असल में तो रोहिंग्या मुसलमान रोटी और तन पर कपड़े तक से भी बेज़ार हैं। रहमान यहां रहने वाले बच्चों को पढ़ाने का काम करते हैं और अपनी जान-पहचान वालों से बच्चों को कॉपी-पेंसिल आदि दिलवा देते हैं। उनका कहना है कि वह अकेले में तो इतना ही मदद कर सकते हैं।
(सौ- आउटलुक)