उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार मुजफ्फरनगर में सपा-रालोद के लिए समीकरण बदले हुए नजर आ रहे हैं। मुजफ्फरनगर में छह विधानसभा क्षेत्र हैं और सपा-रालोद गठबंधन ने इस बार एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा है। विश्लेषकों का कहना है कि जमीनी स्तर पर इसने स्थानीय अल्पसंख्यक नेताओं को नाराज कर दिया है। यही कारण है कि कुछ सीटों पर गठबंधन के उम्मीदवारों की संभावनाओं को नुकसान पहुंच सकता है।
दरअसल, 2017 के चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगे के चलते भाजपा ने पश्चिमी यूपी में तगड़ी बढ़त हासिल की थी और 90 फीसदी सीटें अपने नाम की थी। इस बार मुस्लिम बहुल मुजफ्फरनगर जिले में किसी भी सीट पर सपा-आरएलडी गठबंधन ने कोई मुस्लिम कैंडिडेट न देकर बीजेपी के ध्रुवीकरण के दांव को फेल करने की रणनीति को अपनाया है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि ऐसा करने से यहां क्या प्रभाव पड़ सकता है।
मुजफ्फरनगर में कांग्रेस ने दो मुस्लिम और बसपा ने तीन को मैदान में उतारा है। सपा-रालोद के स्थानीय नेताओं को डर है कि इनके द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के उम्मीदवारों को मैदान में उतारने से वोटों का बंटवारा हो सकता है, जिसका सीधा फायदा भाजपा को होगा। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, मुजफ्फरनगर की आबादी लगभग 25 लाख है, जिनमें से लगभग 42% मुसलमान हैं। 2017 में केवल हिंदू उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के बाद बीजेपी सभी सीटों पर विजयी हुई थी। बसपा ने तब तीन और सपा ने एक को मैदान में उतारा था।
इस चुनाव में कांग्रेस और बसपा दोनों ने चरथावल और मीरापुर सीटों से मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं। हाल ही में रालोद में शामिल हुए बसपा के पूर्व विधायक मुरसलीन राणा ने दावा किया कि रालोद मुजफ्फरनगर में मुसलमानों को टिकट देना चाहता था, लेकिन सपा इच्छुक नहीं थी। किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट न देकर गठबंधन मुजफ्फरनगर में कम से कम तीन क्षेत्रों में हार सकती है, बसपा उम्मीदवारों को अधिक मुस्लिम वोट मिल सकते हैं।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार के चुनाव में मुस्लिम मतदाता किस ओर अपना मतदान करेंगे और सपा-रालोद का भाजपा वाला दांव कितना कारगर साबित होगा। सपा-रालोद ने भले ही इस दांव को खेला है लेकिन स्थानीय अल्पसंख्यक कार्यकर्ता किस ओर जाएंगे, यह कहना मुश्किल होगा।