निज़ामुद्दीन
नई दिल्ली,
नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाने के बाद राष्ट्रपति के पास स्वीकृत के लिए भेजा जाएगा। राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद यह भारतीय संविधान का हिस्सा हो जाएगा। इसके बाद पूरे देश में एनआरसी, जो अभी केवल आसाम में ही लागू है, लागू करने का कानून बनेगा, जिस के तहत देश के हर नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। मुसलमानों के अतिरिक्त किसी अन्य समुदाय का कोई भी नागरिक अगर अपनी नागरिकता नहीं भी सिद्ध कर पाता है, तो उसे अधिनियम के अंतर्गत भारतीय नागरिकता मिल जाएगी और उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होगी।
लेकिन अगर वह मुस्लिम है तो उसे देश में रहने का कोई अधिकार नहीं होगा, क्योंकि नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 मुसलमानों को छोड़कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश आदि भारत के पड़ोसी देशों के विदेशी प्रवासी नागरिकों, जो छ: या उससे अधिक समय से भारत में रह रहे हैं उन्हें भारत की नागरिकता प्रदान करता है। इसलिए माना जा रहा है कि यह एक धर्म आधारित बिल है जो हमारे भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों और संविधान के जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र आदि के आधार पर किसी के साथ भी भेद-भाव न किए जाने के आदर्शों के खिलाफ है।
यह बिल मुसलमानों के प्रति विशेष रूप से नफरत की भावनाओं और आरएसएस के राजनैतिक एजंडे की आपूर्ति के लिए लाया गया है। तथा देश की एकता अखंडता के लिए हानिकारक प्रतीत होता है। इस से देश में नफरत, दुश्मनी, प्रतिशोध और नस्लवाद को बढ़ावा मिलेगा। देश के जो समझदार लोग हैं, वो ये देख रहे हैं कि देश ग़लत दिशा में जा रहा है तथा यह संविधान के मूलभूत ढांचे पर प्रहार करता है, तथा उसे बदल दे रहा है।
संविधान की प्रस्तावना से लेकर धारा एक से 32 जो नागरिकों के मूलभूत अधिकारों से सम्बन्धित हैं संविधान का ढांचा माना गया है। इस तरह से संविधान के मूलभूत ढांचे को नहीं बदला जा सकता है। संविधान के ढांचें को बदल देने और उसे चोट पहुंचाने वाला यह एक मामूली विधेयक है। 1955 में नागरिकता संशोधन बिल संसद में पास हुआ था उसके बाद इसमें दर्जनों संशोधन हुए परन्तु कभी भी इसमें किसी जाति, धर्म, भाषा, रंग, नस्ल, क्षेत्र या देश के आधार पर भेद भाव की बात नहीं आई थी।
इस तरह के विधेयक के ज़रिए आप संविधान का ढांचा नहीं बदल सकते इसका प्राविधान संविधान के माध्यम से ही किया गया है तथा माननीय उच्चतम न्यायालय के केश्वानन्द भारती बनाम केरला स्टेट का फैसला 1973 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है कि संविधान के मूलभूत ढांचा में कोई बदलाव नहीं किया सकता है। इस आधार पर इस बिल के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की जा सकती है तथा कोर्ट से आग्रह करनी होगी कि इसकी सुनवाई संवैधानिक पीठ करे। फिर कोर्ट में यह बात साबित करनी होगी कि किस तरह से इस अधिनियम के जरिए संविधान के मूलभूत ढांचे को बदल रहा है।
फिर यदि कोर्ट इस बात को स्वीकार करता है तो ही स्थित कुछ बदल सकती है। अब देश के लोगों की उम्मीदें सर्वोच्च न्यायालय पर ही निर्भर हैं, और यह सर्वोच्च न्यायालय की एक परीक्षा होगी कि वो जो मूलभूत ढांचे को जैसे परिभाषित करते आएं हैं वो उसे इस विधेयक पर कैसे लागू करते हैं। इस पर पूरे देश की ही नहीं पूरे विश्व की नज़रें टिकी होंगी। बहुसंख्यकवाद के कारण कई बार संसद ग़लत क़ानून बना देती है और फिर अदालतें न्यायिक समीक्षा की ताक़त का इस्तेमाल करते हुए अंकुश लगाती हैं और संविधान को बचाती हैं।
इस तरह के मामले कई बार संवैधानिक बेंच के पास चले जाते हैं और बेंच के पास बहुत से मामले पहले से ही लंबित हैं जिसकी वजह से इसकी सुनवाई जल्दी नहीं भी हो सकती है। एक बार फिर भारतीय संविधान की सुरक्षा उच्चतम न्यायालय के हाथों होगी। अब देखना यह है कि भारतीय संविधान की अस्मिता उसका मूल ढांचा सुरक्षित बच पाता है या नहीं।
(लेखक तीन दशकों से राजनीति में सक्रिय हैं, फ़िलहाल सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी आफ इंडिया से जुड़े हुए हैं।)