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18 Oct 2024, Fri

भारतीय प्रशासनिक सेवा के 64 सेवानिवृत्त अधिकारियों ने 2019 लोकसभा चुनाव में गंभीर गड़बड़ियों का आरोप लगाया है और इसे लेकर चुनाव आयोग को पत्र लिखा है। सेवानिवृत्त अधिकारियों के इस पत्र को सिविल सोसाइटी के लोगों का भी समर्थन मिला है। इन लोगों में प्रोफेसर, वकील, पूर्व नौसेना अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं।

इस पत्र में सेवानिवृत्त अधिकारियों ने 2019 लोकसभा में गंभीर गड़बड़ियों के तहत ये आरोप लगाए हैं-

1. 2019 के लोकसभा चुनाव में गड़बड़ियों को लेकर मीडिया ने बहुत सी रिपोर्ट्स जारी की हैं। हम सभी रिपोर्ट्स को सच नहीं मानते हैं। लेकिन इन रिपोर्ट्स में लगाए गए आरोपों का चुनाव आयोग ने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया है। इससे जनता के बीच यही मत बना है कि चुनाव आयोग के पास इन आरोपों का कोई जवाब नहीं है।

2. इस बार के लोकसभा चुनाव के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि इसे पूरी निष्पक्षता के साथ कराया गया। इस बार चुनाव आयोग के रवैये पर बहुत से सवाल उठे हैं। पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय में ऐसा नहीं हुआ कि चुनाव आयोग की ईमानदारी और निष्पक्षता पर सवाल उठाए गए हों। हालांकि, इस बार तो पूर्व चुनाव अधिकारियों ने अपने उत्तराधिकारियों के फैसलों पर सवाल उठाए हैं।

3. इस बार जब लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हुई, तब से ही चुनाव आयोग का झुकाव एक विशेष पार्टी की ओर नजर आने लगा। 2004, 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा क्रमश: 29 फरवरी, 1 मार्च और 5 मार्च को की गई। लोकसभा चुनाव के साथ लगे विधानसभा चुनावों की घोषणा भी 1 से 5 मार्च के बीच हुई। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा बिना किसी ठोस कारण के देर से की गई। चुनाव आयोग के इस कदम ने इस बात को मजबूती दी कि तारीखों की घोषणा में देरी इसलिए की गई ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए प्रोजेक्ट्स का उद्घाटन कर सकें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 फरवरी से 9 मार्च के बीच 157 प्रोजेक्ट्स का उद्घाटन किया। इन सभी प्रोजेक्ट्स का कार्यक्रम पहले से तय था। इस प्रकार ऐसा पहली बार हुआ कि चुनाव आयोग ने सरकार की सुलभता के मद्देनजर चुनाव की तारीखों की घोषणा की। इससे पहले सरकारें चुनाव आयोग की सुलभता के मद्देनजर अपना कार्यक्रम निर्धारित करती थीं।

4. इस बार का चुनाव कार्यक्रम देश के इतिहास में सबसे लंबा रहा। इसने इस बात को बल दिया कि बीजेपी के फायदे के लिए चुनाव को जानबूझकर लंबा खींचा गया। राज्यों की सीटों और चुनाव के चरणों में कोई तार्किक संबंध नहीं रहा। जिन राज्यों में बीजेपी कमजोर थी जैसे- तमिलनाडु(39 सीट), केरल(20 सीट), आंध्र प्रदेश(25 सीट) और तेलंगाना(17 सीट), वहां चुनाव केवल एक चरण में कराया गया। इसके बरक्श जिन राज्यों में बीजेपी के सामने कड़ी चुनौती थी या जहां पार्टी के जीतने की संभावना थी जैसे- कर्नाटक(28 सीट), मध्य प्रदेश(29 सीट), राजस्थान(25 सीट) और ओडिशा(21 सीट), वहां चुनाव कई चरणों में कराए गए ताकि प्रधानमंत्री को इन राज्यों में चुनाव प्रचार के लिए ज्यादा समय दिया जा सके। वाराणसी लोकसभा सीट पर मतदान, जहां से प्रधानमंत्री ने चुनाव लड़ा, सुविधानुसार अंतिम चरण में कर दिया गया।

5. ऐसी कई रिपोर्ट्स आईं, जिनमें बताया गया कि वोटिंग लिस्ट से मतदाताओं के नाम गायब कर दिए गए। इन मतदाताओं में ज्यादातर अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं। हम इन रिपोर्ट्स पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करते हैं। लेकिन ये चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वो इन रिपोर्ट्स का संतोषजनक खंडन करे।

6. चुनाव आयोग ने बीजेपी के प्रत्याशियों द्वारा दिए गए घृणास्पद भाषणों पर कोई ढंग की कार्रवाई नहीं की। बीजेपी के प्रत्याशी लगातार घृणास्पद बयान देकर आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करते रहे और चुनाव आयोग मूक दर्शक बना रहा। चुनाव आयोग ने कहा कि उसके पास कार्रवाई करने के लिए जरूरी शक्ति नहीं है। अमित शाह ने एक भाषण के दौरान कहा कि गैरकानूनी प्रवासियों को बंगाल की खाड़ी में फेंक देना चाहिए। यह भाषण सीधे तौर पर आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन कर रहा था। जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को याद दिलाया, केवल तब ही चुनाव आयोग को अपनी शक्तियों के बारे में पता चला। लेकिन इसके बाद भी चुनाव आयोग ने केवल छोटे-मोटे बयानों पर कार्रवाई की। अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयानों पर चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की। चुनाव आयोग ने बंगाल में अंतिम चरण के चुनाव प्रचार पर रोक लगा दी। लेकिन यह भी ये सुनिश्चित करने के बाद किया गया कि पीएम मोदी का चुनाव प्रचार बंगाल में पूरा हो जाए। इस तरह चुनाव आयोग ने अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साझेदारी निभाई।

7. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार अपने भाषणों में पुलवामा आतंकी हमले और बालाकोट एयरस्ट्राइक का दुरुपयोग अंधराष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए किया। यह साफ तौर पर आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन था। राज्यों के चुनाव अधिकारियों द्वारा बार-बार रिपोर्ट करने के बाद भी चुनाव आयोग ने पीएम मोदी को एक भी कारण बताओ नोटिस नहीं भेजा। इस मुद्दे पर चुनाव आयोग के भीतर तीखे मतभेद हो गए। लेकिन चुनाव आयोग ने फिर भी कोई नोटिस पीएम को नहीं भेजा। चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने इन भाषणों पर गहरी आपत्ति जताई। लेकिन उनकी आपत्ति के बारे में लोगों को नहीं बताया गया। इस तरह लोगों को उनके जानने के अधिकार से वंचित किया गया।

8. चुनाव आयोग का झुकाव मोहम्मद मोहसिन नाम के आईएएस अधिकारी के मामले में साफ तौर पर नजर आया। मोहम्मद मोहसिन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हेलीकॉप्टर की तलाशी लेने के चलते सस्पेंड कर दिया गया। चुनाव आयोग ने कहा कि अधिकारी ने चुनाव आयोग के उस आदेश का उल्लंघन किया है, जिसके तहत एसपीजी सुरक्षा वाले व्यक्ति की तलाशी लेने की मनाही है। हालांकि, ठीक इसी समय ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और तात्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के हेलीकॉप्टरों की तलाशी ली गई थी। चुनाव आयोग अपने दोहरे रवैये का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया।

9. चुनाव आयोग ने सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के गंभीर मामले में भी सरकार को बरी कर दिया। दरअसल, नीति आयोग ने पीएम के दौरे के आधार पर कुछ केंद्रशासित प्रदेशों और जिलों से जानकारी मांगी थी। असल में यह इसलिए किया गया ताकि इस जानकारी का प्रयोग चुनाव प्रचार के दौरान किया जा सके। यह साफ तौर पर आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन था। लेकिन चुनाव आयोग ने सिरे से इसे नकार दिया और कोई संतोषजनक कारण भी नहीं बताया।

10. चुनाव आयोग ने सत्ताधारी पार्टी द्वारा मीडिया के दुरुपयोग को लेकर भी कोई कार्रवाई नहीं की। मीडिया के दुरुपयोग में जो सबसे वीभत्स कारनामा रहा, वो था चुनाव के ठीक पहले ‘नमो टीवी’ नाम से एक नया टीवी चैनल खोलना। इस चैनल पर लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र द्वारा दिए गए भाषण दिखाए गए। नमो टीवी ने ना तो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से अनुमति ली थी, ना ही इसने नया चैनल चालू किए जाने के संबंध में नियम-कानूनों का पालन किया था। चुनाव आयोग ने इसे बंद करने का आदेश दिया था, लेकिन इसके बाद भी यह चैनल लगभग चुनाव के अंत तक चलता रहा। इससे पता चलता है कि चुनाव आयोग ने इसे लेकर कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया। मीडिया दुरुपयोग के दूसरे वाकये भी हुए। अभिनेता अक्षय कुमार ने पीएम मोदी का साक्षात्कार किया। इसे कई सारे चैनलों ने चुनाव के दौरान प्रदर्शित किया। इस साक्षात्कार में पीएम मोदी के व्यक्तित्व को बहुत शानदार बनाकर पेश किया गया। इसने चुनाव प्रचार में पीएम मोदी और उनकी पार्टी को विरोधियों के ऊपर बढ़त प्रदान की। ठीक इसी प्रकार चुनाव के अंतिम चरण में पीएम मोदी की केदारनाथ यात्रा को अभूतपूर्व मीडिया अटेंशन मिली। जहां तक हमें पता है कि इन सब चीजों पर आए खर्च को पीएम के चुनावी प्रचार खर्चे में नहीं जोड़ा गया।

11. चुनावी फंडिंग के आधार पर यह चुनाव अब तक का सबसे अपारदर्शी चुनाव रहा। इस चुनाव में इलेक्टोरल बॉन्ड की वजह से खूब सारा पैसा खर्च हुआ। वहीं 3456 करोड़ रुपये जब्त किए गए। धन के बेजा प्रयोग की वजह से चुनाव आयोग ने तमिलनाडु की एक सीट पर चुनाव निरस्त कर दिया, लेकिन दूसरे ऐसे ही मामलों में चुनाव आयोग ने शायद ही कोई कार्रवाई की। अरुणाचल प्रदेश के सीएम के दस्ते से 1।8 करोड़ रुपये जब्त किए गए। लेकिन चुनाव आयोग ने यह नहीं बताया कि उसने इस मामले में क्या कार्रवाई की। इस आधार पर यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि चुनाव आयोग ने किस तरह से अपना दायित्व निभाया।

12. मतदान के लिए ईवीएम मशीनों के प्रयोग का मुद्दा सबसे अधिक विवादास्पद रहा। चुनाव आयोग ने बार-बार कहा कि ईवीएम मशीनों में टेंपरिंग नहीं की जा सकती है, लेकिन इसके बाद भी चुनाव आयोग के अपारदर्शी रवैये की वजह से यह मुद्दा विवादास्पद बना रहा। इस बात को लेकर बहुत सी रिपोर्ट्स आईं कि ईवीएम बनाने वाले दो सरकारी संस्थानों और चुनाव आयोग की सूची में उपलब्ध ईवीएम की संख्या बेमेल पाई गई। एक मीडिया रिपोर्ट में आरटीआई के जरिए खुलासा किया गया कि 20 लाख ईवीएम मशीनें, जिन्हें निर्माताओं ने चुनाव आयोग को सौंपे जाने की बात कही, वे चुनाव आयोग के पास नहीं पाई गईं। जब इस बारे में चुनाव आयोग से प्रश्न पूछे गए तो चुनाव आयोग ने इस रिपोर्ट को सिरे से नकार दिया। पारदर्शिता के लिए चुनाव आयोग ने कोई भी आंकड़ा भी सार्वजनिक नहीं किया।

13. लोगों का विश्वास ईवीएम मशीनों को लेकर पुख्ता होता अगर चुनाव आयोग वीवीपैट पर्चियों की गिनती को लेकर और सहयोग करता। चुनाव आयोग से विभिन्न राजनीतिक दलों और समूहों ने वीवीपैट पर्चियों के मिलान की बात कही। इसे लेकर चुनाव आयोग ने कहा कि ईवीएम के 50 फीसदी वोटों के वीवीपैट मिलान में छह से सात दिन लगेंगे, हलांकि पहले सभी बैलेट पेपर गिनने में केवल 12 से 18 घंटे लगते थे। चुनाव आयोग लगातार इस जिद पर अड़ा रहा कि प्रत्येक लोकसभा सीट की एक विधानसभा की एक एक ईवीएम के वोटों का मिलान वीवीपैट से कर लेने से वीवीपैट लगाने का उद्देश्य पूरा हो जाएगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के दबाव बनाने के बाद चुनाव आयोग ने वीवीपैट मिलान की संख्या बढ़ाकर पांच कर दी। चुनाव आयोग द्वारा पचास फीसदी वीवीपैट पर्चियों के मिलान की बात को मना कर देने से संदेह पैदा हुआ क्योंकि वैश्विक स्तर पर यह एक तय मानक है।

14. मतदान के अंतिम दिन और मतगणना के दिन के बीच विभिन्न राज्यों में स्ट्रांग रूम से और स्ट्रांग रूम में ईवीएम के अविश्लेषित हस्तानांतरण की खबरें आईं। चुनाव आयोग ने इन्हें भी सिरे से नकार दिया और यह भी नहीं बताया कि कौन सी ईवीएम कहां भेजी गई।

15. विपक्षी दलों ने मतगणना की शुरुआत में वीवीपैट के मिलान की मांग की। लेकिन चुनाव आयोग ने इस मांग को बिना किसी ठोस वजह से सिरे से नकार दिया। चुनाव के बाद मीडिया में रिपोर्ट्स आईं कि 370 लोकसभा सीटों में ईवीएम और वीवीपैट की गणना बेमेल रही।

16. ईवीएम और वीवीपैट गणना बेमेल होने की बात को इस आधार पर नकार दिया गया कि प्रत्याशियों के बीच जीत-हार का अंतर बहुत अधिक रहा। बैलेट पेपर के समय जब गिनती में कोई गलती पाई जाती थी तो उसे इस आधार पर नकार दिया जाता था कि जीत-हार का अंतर गलती से कहीं अधिक है। लेकिन यह तर्क ईवीएम मशीनों के साथ लागू नहीं होता है। ईवीएम के साथ ऐसा होना एक गंभीर मसला है। इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम में एक वोट की गड़बड़ी भी पूरी की पूरी चुनावी प्रक्रिया को संदेह में ला सकती है।

17. हाल ही में एक जाने माने अकादमिक ने लिखा, “हम सिर्फ प्राप्त जानकारियों के आधार पर प्रश्न पूछ सकते हैं। एक नागरिक के तौर पर यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि हम सरकारी संस्थाओं के गलत कामों के लिए सबूत पेश करें, वो भी तब जब ये संस्थान एकदम सही ढंग से काम करने का दावा करते हों। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम सामने दिख रहीं विसंगतियों के बारे में सवाल खड़े करें। यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वो इन विसंगितियों का तर्कसंगत जवाब पेश करे।”

18. एक समय ऐसा था जब तमाम कठिन भौगोलिक परिस्थितियों और करोड़ों की संख्या में मतदाताओं के होने के बाद भी निष्पक्ष चुनाव कराने की वजह से हमारे चुनाव आयोग की क्षमता को लेकर दूसरे देश ईर्ष्या महसूस करते थे। इन देशों में विकसित देश भी शामिल थे। हमारे चुनाव आयोग की इस विरासत को समाप्त होते देखाना वास्तव में दुखद है। अगर ऐसा होता रहा तो यह हमारे संविधान की मूल आत्मा और लोकतांत्रिक मूल्यों की मृत्यु के बराबर होगा।

19. समग्रता में देखने पर यह बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है कि 2019 के चुनाव परिणाम को लेकर गंभीर शंकाए हैं। चुनाव आयोग का यह दायित्व बनता है कि वो इन शंकाओं को दूर करे। भविष्य में ऐसा दोबारा ना हो, इसके लिए चुनाव आयोग को प्रत्येक अनियमितता के संदर्भ में तर्कसंगत जवाब देने की जरूरत है।

By #AARECH