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22 Nov 2024, Fri

प्रभात शुगलू

नई दिल्ली
ममता बनर्जी की कोलकाता रैली में आपको क्या दिखाई दिया। आप कहेंगे विपक्षी एकता। ममता बनर्जी का भी यही कहना है। और क्यों न हो। देश की लगभग दर्जन छोटी-बड़े विपक्षी दल कोलकाता मंच पर ममता के साथ दिखाई दिये। लेकिन क्या आपने वो देखा जो मैने देखा। इस तस्वीर में सभी लोगों को आप पहचानते ही होंगे। चलिये एक बार फिर इनसे आपका तआररूफ कराते हैं।

एम के स्टालिन
डीएमके नेता करूणानिधि के बेटे हैं और उनके राजनीतिक वारिस। तमिलनाडु की दो बड़ी पार्टियों में से एक। अभी राज्य में सत्ता से बाहर हैं। जब सत्ता में होतें हैं तो दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी से बढ़िया छनती है। इन दिनों सत्ता से बाहर हैं इसलिये दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी से भी दूर। इसलिये ममता ने जब ऐंटी मोदी रैली बुलाई और इन्हे न्योता भेज तो इन्होने झट न्योता स्वीकार कर लिया। ये प्रधानमंत्री बनना नहीं बनवाना चाहते हैं। राहुल गांधी इनके हॉट फेवरिट हैं।

कांग्रेस
राहुल गांधी तो इस रैली में शामिल नहीं थे पर लोकसभा में विपक्षी नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और पार्टी सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ज़रूर मौजूद थे। तीन राज्यों में जीत के बाद राहुल गांधी और कांग्रेस का हेमोग्लोबिन मात्रा में इज़ाफा हुआ होगा। वर्ना जिस रफ्तार से पार्टी का प्लेटलेट काउंट कम हो रहा था उससे मुक्त होने का खतरा बढ़ रहा था। अब राहुल को लगता होगा मोदी को हराना इतना मुश्किल भी नहीं। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में वोटर तो वहीं होता है मगर मानसिकता अलग तरीके से काम करती है। स्टालिन राहुल को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। मगर मंच पर मौजूद किसी भी दूसरे नेता ने कभी ऐसे कोई संकेत तक नहीं दिये। ज़ाहिर है सब के अपने अपने कैल्कुलेशन है। एकता होते हुए भी अनेकता है। राजनीति मुखौटों का बाज़ार है। ये मुखौटा बेचते हैं। वोटर उसे ही असली समझ कर खरीद लेता है। महागठबंधन के भी हर प्लेयर के पास मुखौटों की अपनी एक दुकान है।

चंद्रबाबू नायडू
तेलुगु देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू से मिलिये। अभी पिछले साल के शुरूआती महीनों तक इनकी नरेंद्र मोदी से अच्छी छन रही थी। एनडीए के सहयोगी भी थे। फिर एक दिन इन्हे लगा बीजेपी कम्यूनल पार्टी है और मोदी उपयुक्त प्रधानमंत्री नहीं। राज्य को स्पेशल दर्जा न मिलने पर एक दिन अचानक रूठ गये। और फिऱ मोदी और एनडीए को टाटा बोल दिया। एक बार सत्ता के नशे में चूर इन्होने भी मुख्यमंत्री के तौर पर इंडिया शाइनिंग का नारा बुलंद किया था। बस तभी से उनके बुरे दिन की शुरूआत हुई। हाल फिलहाल सत्ता वापस मिली। मगर तेलंगाना में के सी आर ने चित्त कर दिया। हार तो राहुल की भी हुई मगर तीन राज्यों की जीत की धमक में ये बिलबिलाहट दब गई। इनका चित्त अपने राज्य प्रदेश में कम लगता है। दिल्ली की फिज़ा नें इनको उतावला कर दिया है। प्रधानमंत्री बनने की तड़प है। बस शब्द ज़ुबान तक नहीं आ रहे।

शरद पवार
शरद पवार की राजनीति समझना इतनी आसान नहीं। वो सब के होकर भी किसी के नहीं। और किसी के न होकर भी सब के हैं। सोनिया के विदेशी मुद्दे पर उनकी लीडरशिप ठुकरा दी और राष्ट्रवादी कांग्रेस बना ली। यूपीए की मनमोहन सरकार में मंत्री भी रहे। मोदी को राफेल पर डिफेंड भी किया। पार्टी के कुल 6 सांसद हैं। सीटें भले उम्मीद से कम लाते हों लेकिन पुराने मंजे हुए नेता है इसलिये राजनीतिक अखाड़े में मान-सम्मान है। फिलहाल ममता के मंच पर हैं तो ज़ाहिर है मोदी की मुखालफत में उतरे हैं। कह चुके हैं कि वो प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते। बनवायेंगे। लेकिन राजनीति में ऊंट का उठना और बैठना और करवट लेना सब समय तय करता है।

शरद यादव
शरद यादव के बारे में इतना ही कहना होगा कि फिलहाल इनका कई सालों से कोई स्टेटस अपडेट नहीं हुआ है। आप और हम जैसे कपड़े बदलते हैं। ये पार्टियां बनाते और छोड़ते हैं। कभी जब नहीं छोड़ते तो निकाल दिये जाते हैं। फिलहाल ये वही हैं जहां कुछ साल पहले थे न घर के न घाट के। वैसे घर तो ये बहुत पहले छोड़ आये थे जब बीजेपी से गठबंधन किया था और वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी बने। चुनाव लड़े तो अपनी बदौलत तो नहीं जीत सकते। फिर सवाल ये भी उठता है कि इन्हे लड़ाएगा कौन। भाषण देते हुये ये इतना खो जाते हैं कि मोदी सरकार के राफेल सौदे की जगह कांग्रेस के बोफोर्स कांड की मंच से ऐसी तैसी कर देते हैं। फिर कहते हैं सॉरी। बोफोर्स को राफेल समझियेगा। ये एक प्रधानमंत्री बनवाना चाहते हैं। मोदी के अलावा कोई भी। वैसे ये स्टालिन की तरह कांग्रेस या राहुल प्रेमी नहीं। दरअसल ये किसी से प्रेम नहीं करते। भूले से भी नहीं। याने के आप समझ गये न।

पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा
कांग्रेस के मारे हुए भी और उसके आभारी भी। सोनिया ने हाथ खींचा तो ग्यारह महीने में प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। उसके बाद इनके अच्छे दिन आये नहीं। सत्ता बेटे को सौंप चुके हैं। बेटे का हाथ राहुल के हाथ में हैं। ये खुद भीष्म पितामह के रोल में हैं। पवार भी कह चुके हैं देवेगौड़ा जी कि सारी मनोकामना पूरी हो चुकी है। अब वो इन सब के ऊपर उठ चुके हैं। राजनीति में इतना सैक्रिफाइस वो ही करता है जिसके पास खोने को कुछ नहीं होता।

फारूख अब्दुल्ला
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री। कभी देश का राष्ट्रपति भी बनने के सपना था। ओमर श्रीनगर में तो ये दिल्ली रहना ज्यादा पसंद करते हैं। जैसे ये कभी विदेश रहना ज्यादा पसंद करते थे जब कश्मीर घाटी में आतंकवाद चरम पर था। बड़े मस्त-मौला किस्म के हैं। मस्ती कश्मीर में करते हैं। मौलागिरी कश्मीर के बाहर। बड़े सुरीले नेता हैं। लेकिन राजनीति में इनके सुर अक्सर भटक जाते हैं। और ऐसे ही भटकते भटकते ये कभी बीजेपी और वाजपेयी के घर होते हुए ममता के मंच पर खड़े दिखते हैं। इन्हे कोई सीरियसली नहीं लेता। शायद ये खुद को भी कभी सीरियसली नहीं लेते।

अखिलेश यादव
नये ज़माने के तेवर हैं। पिता से भी लोहा ले चुके हैं। पार्टी में दो फाड़ कर अब खुद ही अपने पिता मुलायम सिंह के जायज़ राजनीतिक वारिस भी साबित कर चुके हैं। बुआजी से रिश्ते सुधार लिये हैं। यानि जो पिता न कर पाया बेटे न कर दिखाया। मायावती के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे। और उन्हे ही प्रधानमंत्री बनवाने की जुगत में लग गये हैं। उत्तर प्रदेश ने देश को कई प्रधानमंत्री दिये। जी हां- मोदी को भी बनारस से लड़ना पड़ा। उत्तर प्रदेश फिर से देश का नया प्रधानमंत्री तय करेगा इसको सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता।

बीएसपी
बहुजन समाज पार्टी पिछले लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल पायी थी। ऐसे में प्रधानमंत्री पद के सपने देखना राजनीतिक दुस्साहस से कम नहीं। ममता की इस रैली में खुद मायावती तो मौजूद नहीं थीं मगर उनके खासम-खाम सतीश मिश्रा ज़रूर थे।

तेजस्वी यादव
तेजस्वी बिहार में नई आवाज़ के तौर पर उभर रहे। मुख्यमंत्री नितीश कुमार के मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री का दर्जा था। पिता लालू यादव की बदौलत। लालू यादव फिलहाल चारा घोटाला मामले में जेल में हैं। इन दिनो तबियत भी कुछ ढीली रहती है। तेजस्वी ने ही पार्टी की राजनीतिक ज़िम्मेदारी संभीली हुई है। ये भी उसी को प्रधानमंत्री बनवायेंगे जिन्हे पिता चाहेंगे। और अगर ऐसा न हो पाया तो 2019 के चुनावी अखाड़े से महागठबंधन की इस अवसरवादी राजनीति से कुछ दांव पेंच सीख कर ही निकलेंगे।

अरविंद केजरीवाल
कुछ साल पहले जब ये एनजीओ का आवरण उतार कर राजनीति में उतरे तो लगा कुछ नई बयार बहेगी। लेकिन वक्त ने करवट ली और ये खुद उसी पुरानी दूषित राजनीतिक बयार में बह गये जिसके लिये इन्होने कभी मास्क लगाने की वकालत की थी। इनका मुख्यमंत्री बनना बड़ी खबर थी। इनकी पार्टी से बड़े दिग्गजों का पार्टी छोड़ कर जाना उससे बड़ी खबर। वो सिलसिला आज भी जारी है। जो कहते हैं वो कभी नहीं भी करते। सवाल पूछोगे तो जवाब में तल्खी का हठ। मोदी ने भारत को गुजरात मानने की गल्ती की। इन्होने दिल्ली जैसे हॉफ स्टेट को इंडिया। दिल्ली से बाहर गये तो भीड़ जुटायी मगर वोट नहीं। मगर मंसूबों में कोई कमी नहीं। कभी कांग्रेस अनटचेबल थी। आज मंच पर उसी के साथ हाथ में हाथ। कुल मिला कर केजरीवाल भी मुखौटे बेचते ही नज़र आये। नहीं फिलहाल ये प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते। किसी को बनवा पाने की स्थिति में होंगे भी या नहीं ये भी कुछ महीने में आप जान जायेगे।

ममता बनर्जी
खुद ममता बनर्जी का यूं रैली का आयोजन करना भी कुछ ठोस संकेत दे रहा। बीते सालों में ऐंटी मोदी आवाज़ो में ममता की आवाज़ा बुलंद रही है। मगर उन्होने दायरा अपने राज्य तक ही सीमित रखा। बीजेपी ममता सरकार पर मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने के के इल्ज़ाम लगाती रही है। ममता लेफ्ट फ्रंट को ध्वस्त करके सत्ता में आयीं थी। लेफ्ट फ्रंट तब से धराशायी ही पड़ा है। इसलिए ममता का फोकस मोदी और दिल्ली है। बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत तो नहीं कर पाई मगर ममता का फितूर बीजेपी मुक्त भारत ज़रूर है। उनके मन की तो वो जानें पर अगर नौबत आई यानि महागठबंधन के पार्टियों की ठीक-ठाक सीटें आयीं तो ममता भी प्रधानमंत्री की रेस में आगे होंगी इससे कोई नाइत्तेफाक़ नहीं हो सकता।

इतनी संभावनाएं ?
एक साथ इतने सारे पूर्व और संभावित प्रधानमंत्रियो का एक मंच पर होना आपको हैरान नहीं कर रहा। लेकिन ये एकता में अनेकता का आवरण कब तक टिका रहेगा। ये एक शक्ति में तब्दील होगा या उससे पहले ही फुस्स हो जायेगा। इसका जवाब मंच पर मौजूद नेताओं के पास भी नहीं। फिर वोटर से कैसी उम्मीद। वैसे ये दावा कर रहे कि आपसी सहमति से प्रधानमंत्री चुनेंगे। यानि ये मान के चल रहे कि इस बार बाज़ी इनके हक में पलटेगी। और इनके भी अच्छे दिन आयेंगे। सब के कॉन्फिडेंस की दाद दी जानी चाहिये। आखिरी बार इतना भयंकर कान्फिडेस और उससे भी कहीं ज्यादा सटीक दावा 2010 फीफा वर्ल्ड कप में पॉल द ऑकटोपस का दिखा था। महागठबंधन के पास प्रधानमंत्रियों की कमी नहीं। ऐंटी कांग्रेसिज़म कमज़ोर विकल्प था। ऐंटी मोदीज्म क्या ठोस विकल्प हो सकता है।

(लेखक प्रभात शुगलू वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई मीडिया संस्थानों में सीनियर पोस्ट पर रह चुके हैं)