एडवोकेट असद हयात की फेसबुक वाल से
नोयडा, यूपी
चलो अच्छा हुआ अपनों में कोई ग़ैर तो निकला। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष सैय्यद गय्यूर हसन रिज़वी उन सामाजिक और मानवाधिकार कारकूनों से मिलना नहीं चाहते जो राजस्थान, हरियाणा, यूपी की ताज़ा घटनाओं के सन्दर्भ में आयोग के दरवाज़े पर खड़े थे। रिज़वी साहब मई 2017 से इस पद पर हैं। इस के पहले वे भारतीय जनता पार्टी की एक इकाई माइनॉरिटी मोर्चा के राष्ट्रीय सचिव और राज्य यूपी इकाई के अध्यक्ष रह चुके हैं। यानी बीजेपी पार्टी के पुराने सदस्य हैं।
यूपी में योगी सरकार ने 6 फरवरी 2018 को यूपी अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष कानपुर के तनवीर उस्मानी साहब को नियुक्त किया है। वो भी एक लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी की माइनॉरिटी विंग के 3 बार राष्ट्रीय अध्यक्ष और 3 बार राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रह चुके हैं। राजनीतिक दल अपने प्रति वफादार लोगों को संवैधानिक महत्व के पदों पर बिठाते रहे हैं। अल्पसंख्यक आयोग जिस की स्थापना अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिये हुई है। अगर वह उनके मुद्दों पर सोया है, और मुखर नहीं है तो उस की एक ही वजह है कि वह सत्ताधारी दल के हितों की रक्षा के लिए काम कर रहा है, और अपने संवैधानिक ज़िम्मेदारियों से पीछे हट गया है। यह लोकतंत्र की फांसीवाद के हाथों की गयी हत्या है।
जनता पार्टी के 1977-1979 के शासन काल के दौरान नेशनल माइनॉरिटी कमीशन को बनाया गया था। नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटी एक्ट 1992 पारित हुआ और माइनॉरिटी की परिभाषा में मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख, पारसी धर्म के लोगों को परिभाषित किया गया। धारा 2 ग के अंतर्गत 27 जनवरी 2014 को जैन धर्म के लोगों को भी शामिल किया गया। आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, आसाम, बिहार, दिल्ली, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, तमिलनाडु, कर्नाटक, मणिपुर, वेस्ट बंगाल राज्यों में भी राज्य स्तरीय अल्पसंख्यक आयोगों का गठन हुआ है।
यूनाइटेड नेशन्स के घोषणा पत्र 18 दिसम्बर 1992 के अंतर्गत राज्य का यह दायित्व होगा कि वह अल्पसंख्यकों की धार्मिक , भाषाई, सांस्कृतिक, जातीय/नस्ली पहचान की रक्षा करे और उसके विकास के लिये कार्य करे । आइये जानते हैं कि भारत में नेशनल माइनॉरिटी कमीशन केफ क्या क्या दायित्व हैं-
आयोग को निम्नलिखित कार्यों के सम्पादन का आदेश दिया गया हैः-
- संघ तथा राज्यों के अर्थात अल्पसंख्यकों की उन्नति तथा विकास का मूल्यांकन करना।
- संविधान में निर्दिश्ट तथा संसद और राज्यों की विधानसभाओं/परिशदों के द्वारा अधिनियमित कानूनों के अनुसार अल्पसंख्यकों के संरक्षण से संबधित कार्यों की निगरानी करना।
- केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारों के द्वारा अल्पसंख्यकों के हितों की फरक्षा के लिए संरक्षण के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए अनुशंसा करना।
- अल्पसंख्यकों को अधिकारों तथा संरक्षण से वंचित करने से संबधित विशेष शिकायतों को देखना तथा ऐसे मामलों की संबधित अधिकारियों के सामने प्रस्तुत करना।
- अल्पसंख्यकों के विरूद्ध किसी भी प्रकार के भेदभाव से उत्पन्न समस्याओं के कारणों का अध्ययन और इनके समाधान के लिए उपायों की अनुशंसा करना।
- अल्पसंख्यकों के सामाजिक आर्थिक तथा षैक्षणिक विकास से संबधित विषयों का अध्ययन, अनुसंधान तथा विष्लेशण की व्यवस्था करना।।
- अल्पसंख्यकों से संबधित ऐसे किसी भी उचित कदम का सुझाव देना जिसे केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकारों के द्वारा उठाया जाना है।
- अल्पसंख्यकों से संबधित किसी भी मामले विषेशतया उनके सामने होने वाली कठिनाइयों
पर केन्द्रीय सरकार हेतु नियतकालिक या विशेष रिपोर्ट तैयार करना। - कोई भी अन्य विषय जिसे केन्द्रीय सरकार के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है, रिपोर्ट तैयार करना।
कुछ लोगों का तर्क है कि जब देश में लोकतंत्र है तब इस तरह माइनॉरिटी और मैजोरिटी जैसे नामों के साथ वाले आयोगों की ज़रूरत क्या है और इनको खत्म किया जाना चाहिए । उनका तर्क है कि यह समानता के विरुद्ध है।
ऐसी दलील जो भी दे रहे हों, उनको यही कहा जा सकता है कि वे धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों का विरोध वाली मानसिकता के रोगी हैं और उन्होंने कभी भी इन पर होने वाले ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई। अब ज़रा गौर कीजिए उन लोगों पर जो ऐसे आयोगों में उच्च पदों पर आसीन हैं मगर उनके रवैय्या वही जो उनके राजनीतिक आकाओं का है ।इस तरह ये नौकरी करते हुए एक तरह से उन्हीं का काम कर रहे हैं ।
याद कीजिये कि जब पिछले साल पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी साहब ने कहा था कि अल्पसंख्यक मुस्लिम डर के माहौल में रह रहे हैं तब इन्ही गय्यूर रिज़वी साहब ने कहा था कि हामिद अंसारी साहब का बयान गैर जिम्मेदाराना है। अब यही रिज़वी साहब यूपी , राजस्थान और हरियाणा के मामलों के सन्दर्भ में एक्टिविस्टों से मिलना भी नहीं चाहते। अब इनको क्या कहा जाये ?
मैं सैलूट करता हूं मोहतरम शबनम हाशमी साहिबा को कि जिन्होंने पिछले साल अल्पसंख्यक आयोग द्वारा उनको दिए गए अवार्ड को वापस कर दिया था।
अल्पसंख्यक आयोग को वे अख़्तियारत नहीं हैं जो SC/ST आयोग, ओबीसी आयोग और मानवाधिकार आयोग को हैं। इस तरह अल्पसंख्यक आयोग सिर्फ एक डाक घर बन कर रह गए है और अब ये डाकिया भी मिलना नहीं चाहता। क्या एक्टिविस्ट के लिए कानून के दूसरे प्रभावकारी दरवाजे बंद हो गए हैं ? मेरी सलाह अपने साथियों को है कि इन डाकघरों तक वे एक बार जाएं मगर दूसरे कानूनी विकल्पों पर भी काम जारी रहे।
गय्यूर साहब !!!
न मिलता ग़म तो बर्बादी के अफ़साने कहाँ जाते
अगर होते सभी अपने तो बेगाने कहाँ जाते
(असद हयात सामाजिक कार्यकर्ता और वकील हैं। वो पूरे देश में मुस्लिमों पर होने वाली मोब लिंचिंग समेत कई घटनाओं में पीड़ितों की मदद कर रहे हैं। असद हयात उस टीम के हिस्सा हैं जिन्होंने यूपी सीएम आदित्यनाथ के खिलाफ केस किया है)